भारत में तलाक के मामलों के साथ-साथ Alimony Case का मुद्दा भी लगातार चर्चा में है। सिद्धांत रूप से देखा जाए तो एलिमनी उस महिला के लिए सुरक्षा कवच है, जो शादी टूटने के बाद आर्थिक रूप से कमजोर पड़ सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जब महिला खुद शिक्षित हो, अच्छी नौकरी कर सकती हो, तब क्या यह कानून एकतरफा बोझ पति पर डालने का जरिया बन जाता है?
Alimony Case के कुछ मामले तो ऐसे सामने आते हैं जो सोचने पर मजबूर कर देते हैं। उदाहरण के लिए, एक महिला ने महज़ दो साल की शादी के बाद तलाक लिया और 20 लाख की एलिमनी हासिल की। कुछ महीनों बाद उसने दूसरी शादी की, इस बार और भी अमीर व्यक्ति से। यह रिश्ता 18 महीने चला और जब टूटा तो महिला ने करोड़ों रुपये, एक लग्ज़री अपार्टमेंट और महंगी कारों का दावा कर लिया।
तीन साल में दो तलाक और उसके बदले करोड़ों की कमाई—क्या यह किसी “बिज़नेस मॉडल” से कम है? अगर इसे साधारण निवेश की तरह गिना जाए तो महीने का औसत मुनाफ़ा 40 लाख रुपये से भी ज्यादा बैठता है।
कानून का मकसद औरत को सहारा देना था, मगर यहां मामला उल्टा दिखता है। सवाल उठना लाज़मी है कि जब महिला पढ़ी-लिखी, सक्षम और स्वतंत्र है, तब भी क्यों पति की पूरी जिंदगी की कमाई उससे छीन ली जाए?
दरअसल समस्या कानून से ज्यादा उसके दुरुपयोग की है। हर तलाकशुदा औरत एलिमनी का फायदा “धंधे” की तरह नहीं उठाती, लेकिन कुछ केस ऐसे ज़रूर हैं जिनसे यह धारणा बनती है कि एलिमनी अब “फ्री मनी” का ज़रिया बन चुकी है।
तो क्या इस कानून में संतुलन लाने की ज़रूरत है? क्या इसे इस तरह से बदला जाना चाहिए कि जो महिला सच में असहाय हो, वही इसका लाभ उठाए और बाकी मामलों में बराबरी की शर्तें लागू हों?
यह बहस ज़रूरी है। क्योंकि कानून अगर न्याय न दे, बल्कि व्यापार का औजार बन जाए, तो उसका असली मकसद ही खो जाता है।