सुप्रीम कोर्ट ने पराली जलाने वाले किसानों को दंडित न करने पर पंजाब, हरियाणा को फटकार लगाई

हमारे देश में किसानों से जुड़े मुद्दे हमेशा से संवेदनशील रहे हैं। हाल के वर्षों में, सरकार द्वारा पेश किए गए तीन कृषि कानूनों के विरोध और फिर उनकी वापसी ने इस बात को और उजागर किया है। अब, एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट ने इस ओर ध्यान आकर्षित किया है। हर साल की तरह, इस बार भी सुप्रीम कोर्ट में स्टबल बर्निंग (पराली जलाने) को लेकर चर्चा गर्म है। कोर्ट ने यह सवाल उठाया है कि क्यों अब तक सरकार और संबंधित प्राधिकरण किसानों के खिलाफ पराली जलाने के लिए कड़े कानूनी कदम नहीं उठा रहे हैं। यह एक ऐसा मुद्दा है जो हर साल प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने में एक बड़ा कारण माना जाता है, विशेषकर उत्तर भारत में।

सुप्रीम कोर्ट का कड़ा रुख

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा सरकारों को फटकार लगाई है कि क्यों वे किसानों पर पराली जलाने के मामलों में कोई पेनल्टी या सख्त कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि जब तक किसानों और अधिकारियों के खिलाफ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं की जाएगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। 2020 में लागू “कमीशन फॉर एयर क्वालिटी मैनेजमेंट” कानून के तहत, पराली जलाने पर जुर्माने के साथ 5 साल की सजा का भी प्रावधान है। बावजूद इसके, अब तक इस कानून के तहत एक भी मामला दर्ज नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों को एक हफ्ते का समय दिया है कि वे इस संबंध में क्या कार्रवाई कर रही हैं, इसकी रिपोर्ट सौंपें।

पराली जलाने का मुख्य कारण

अब सवाल यह उठता है कि आखिरकार किसान पराली जलाने पर क्यों मजबूर होते हैं? मुख्य कारण है, धान की खेती। उदाहरण के लिए, पंजाब के किसान हरप्रीत सिंह हर साल पूसा 44 किस्म की धान उगाते हैं। यह किस्म भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) द्वारा 1993 में विकसित की गई थी, ताकि किसानों को उच्च पैदावार मिल सके। पूसा 44 की खेती से किसानों को प्रति एकड़ लगभग 35-36 क्विंटल धान की फसल मिलती है, जो अन्य किस्मों के मुकाबले काफी अधिक है। इस किस्म की पूरी खेती प्रक्रिया को पूरा होने में लगभग 160 दिन लगते हैं, जो अक्टूबर के अंत तक फसल कटाई के समय तक पहुंच जाती है।

पराली जलाने की मजबूरी

अक्टूबर के अंत में फसल कटाई होने के बाद किसानों के पास अगली फसल (रबी फसल, मुख्यतः गेहूं) बोने के लिए बहुत कम समय बचता है। इस वजह से किसान खेत में बचे हुए धान के डंठल (पराली) को जलाने के सस्ते और त्वरित उपाय का सहारा लेते हैं, ताकि समय और पैसे दोनों बच सकें। हालाँकि, इस प्रक्रिया से उत्तर भारत में प्रदूषण का स्तर गंभीर रूप से बढ़ जाता है, विशेषकर दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में।

समस्या का समाधान: नई किस्म “पूसा 2090”

इस गंभीर समस्या का समाधान भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के पास हो सकता है। IARI ने अभी हाल ही में पूसा 2090 नामक एक नई धान की किस्म का परीक्षण शुरू किया है। यह किस्म पूसा 44 और सीब 501 के क्रॉस ब्रीड से विकसित की गई है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह केवल 120-125 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है, जबकि इसकी पैदावार पूसा 44 के बराबर या उससे भी अधिक है। इसका मतलब यह है कि किसान इस किस्म को उगाने से अधिक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं, और साथ ही उन्हें पराली जलाने की आवश्यकता भी नहीं होगी, क्योंकि उन्हें अगली फसल के लिए पर्याप्त समय मिलेगा।

पूसा 2090 का एक और फायदा यह है कि इसका मुख्य तना (stem) काफी मजबूत होता है, जो तेज बारिश और आंधी-तूफान में भी नहीं गिरता। इसके अलावा, यह किस्म नाइट्रोजन और यूरिया जैसे उर्वरकों पर बेहतर प्रतिक्रिया देती है और इसे कम सिंचाई की आवश्यकता होती है, जो कि किसानों के लिए फायदेमंद है।

निष्कर्ष

इस तरह, स्टबल बर्निंग की समस्या का समाधान किसानों की फसल पद्धति और तकनीकी विकास में निहित है। यदि पूसा 2090 जैसी नई किस्में सफल हो जाती हैं, तो इससे न केवल किसानों की आय बढ़ेगी, बल्कि पर्यावरण को भी नुकसान कम होगा। सरकार को किसानों को नई तकनीक और फसल पद्धतियों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।

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