सिब्बल ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए पर न्यायालय के फैसले की सराहना की

राज्यसभा के सदस्य कपिल सिब्बल ने नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखने के उच्चतम न्यायालय के फैसले की शुक्रवार को सराहना की।

कपिल सिब्बल ने कहा कि इस मुद्दे पर न्यायालय का फैसला सभी के लिए ‘जियो और जीने दो’ का संदेश है, जो बहुसांस्कृतिक और बहुलवादी राष्ट्र होने के नाते भारत की संस्कृति को संरक्षित रखता है।

उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जो 25 मार्च 1971 तक बांग्लादेश से असम आए प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करती है।

भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने अवैध आव्रजन पर अंकुश लगाने के लिए और अधिक मजबूत नीतिगत उपायों की आवश्यकता पर बल दिया।

सिब्बल ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में कहा, ‘‘उच्चतम न्यायालय ने नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6-ए की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। यह सभी के लिए ‘जियो और जीने दो’ का संदेश है, जो एक बहुसांस्कृतिक और बहुलवादी राष्ट्र होने के नाते भारत की संस्कृति को संरक्षित रखता है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘भक्त सुन रहे हैं? बजरंग दल सुन रहा है? सरकारें सुन रही हैं? मैं ऐसी आशा करता हूं।’’

केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी सरकार और राज्य (असम) में ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) सहित प्रफुल्ल महंत के नेतृत्व वाले आंदोलनकारी समूहों के बीच असम समझौते पर हस्ताक्षर के बाद 1985 में नागरिकता अधिनियम 1955 में धारा 6ए शामिल की गई थी।

ऐसा माना जा रहा है कि उच्चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद उन लोगों को बढ़ावा मिलेगा जो 25 मार्च 1971 के बाद असम में प्रवेश करने वाले प्रवासियों को भारतीय नागरिकता देने का विरोध कर रहे थे।

प्रावधान के अनुसार, जो लोग एक जनवरी 1966 को या उसके बाद, लेकिन 25 मार्च 1971 से पहले, नागरिकता (संशोधन) अधिनियम 1985 के लागू होने के समय बांग्लादेश से असम आए थे और तब से असम के निवासी हैं, वे सभी लोग भारतीय नागरिकता के लिए पंजीकरण करा सकते हैं।

परिणामस्वरूप, असम में रहने वाले प्रवासियों, विशेषकर बांग्लादेश से आये लोगों को इस प्रावधान के तहत नागरिकता प्रदान करने के लिए 25 मार्च 1971 अंतिम तिथि निर्धारित की गई।

प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति सुंदरेश और न्यायमूर्ति मिश्रा ने धारा 6ए की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, जबकि न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला ने अल्पमत वाले अपने फैसले में इससे असहमति जताई।

प्रधान न्यायाधीश ने 25 मार्च 1971 की समय सीमा को तर्कसंगत मानते हुए, अपना निर्णय लिखते हुए कहा कि धारा 6ए को भारत में प्रवासियों के प्रवेश में कमी लाने और उन लोगों से निपटने के उद्देश्य से शामिल किया गया था जो पहले ही पलायन कर चुके हैं।

प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि धारा 6ए संविधान के अनुच्छेद 6 और 7 का उल्लंघन नहीं करती है, जो ‘‘संविधान के लागू होने पर’’ पर पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आए प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करने के लिए समय सीमा निर्धारित करते हैं।

उन्होंने लिखा, ‘‘असम समझौता अवैध प्रवास की समस्या का राजनीतिक समाधान है। असम समझौते के अंतर्गत आने वाले लोगों की नागरिकता के मामलों से निपटने के लिए एक विशेष प्रावधान के रूप में नागरिकता अधिनियम में धारा 6ए जोड़ी गई थी।’’

प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने लिखा, ‘‘धारा 6ए को भारतीय मूल के प्रवासियों की आमद की समस्या से निपटने के लिए संसद द्वारा पारित पिछले कानून से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। धारा 6ए, कानून की लंबी सूची में एक और वैधानिक हस्तक्षेप है, जो भारतीय मूल के प्रवासियों की मानवीय आवश्यकताओं और भारतीय राज्यों की आर्थिक और सांस्कृतिक आवश्यकताओं पर ऐसे प्रवास के प्रभाव के बीच संतुलन स्थापित करती है।’’

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने अपने और न्यायमूर्ति सुंदरेश तथा न्यायमूर्ति मिश्रा की ओर से निर्णय लिखते हुए कहा कि धारा 6ए संविधान के दायरे में आती है और भाईचारे के मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करती है।

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