यह युद्ध भारतीय इतिहास की सबसे लंबी लड़ाइयों में गिना जाता है, जिसमें मुगल बादशाह औरंगज़ेब और मराठा साम्राज्य के बीच सालों तक संघर्ष चला। यह टकराव सिर्फ दो ताकतों की भिड़ंत नहीं था, बल्कि एक ऐसे दौर की शुरुआत थी जिसने हिंदुस्तान की राजनीति और सत्ता के नक्शे को बदल दिया।
17वीं सदी के मध्य में छत्रपति शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की नींव रखी। उनकी नीति थी कि मुगल सत्ता को खुलकर चुनौती दी जाए। औरंगज़ेब के शासन में मुगलों की ताकत अपने चरम पर थी, लेकिन शिवाजी की रणनीति, तेज़ी और जनसमर्थन ने मुगलों को बार-बार चौंकाया। शिवाजी ने एक के बाद एक किलों पर कब्ज़ा किया और समुद्र से लेकर पहाड़ों तक अपने नियंत्रण का दायरा बढ़ाया।
औरंगज़ेब ने इस बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए बड़ी फौजें भेजीं। कई जगह मराठों और मुगलों के बीच भयंकर युद्ध हुए। शिवाजी के गुरिल्ला युद्धकौशल के सामने मुगलों की भारी भरकम सेना कई बार असहाय दिखी।
शिवाजी के बाद उनके पुत्र संभाजी ने भी मुगलों के खिलाफ लड़ाई जारी रखी। औरंगज़ेब ने खुद दक्षिण भारत आकर मराठों को कुचलने का प्रयास किया। उसने लगभग 25 साल इस मुहिम में बिता दिए। यह अवधि मुगलों के इतिहास में सबसे लंबा सैन्य अभियान मानी जाती है। इस दौरान औरंगज़ेब ने कई मराठा किलों पर कब्ज़ा किया, लेकिन मराठा योद्धाओं ने भी पहाड़ों में डेरा डालकर मुगलों की प्रगति को रोक दिया।
यह युद्ध मुगलों के लिए बेहद महंगा साबित हुआ। लाखों सैनिकों और भारी संसाधनों के बावजूद औरंगज़ेब मराठों को पूरी तरह नहीं झुका सका। इसके विपरीत, मुगल खज़ाना खाली होने लगा, सैनिक थकान और बगावत की स्थितियां बनने लगीं। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद मुगल सत्ता तेजी से कमजोर हुई और मराठा शक्ति उभरती चली गई।
इस लंबे संघर्ष ने न सिर्फ दक्षिण भारत बल्कि पूरे देश की राजनीति को प्रभावित किया। मराठा साम्राज्य आगे चलकर उत्तर भारत तक फैल गया। वहीं मुगल साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया इसी युद्ध से तेज़ हुई।
इतिहासकार मानते हैं कि औरंगज़ेब का यह अभियान उसकी सबसे बड़ी राजनीतिक भूल थी। जिस मुगल साम्राज्य को वह और मज़बूत करना चाहता था, वही इस युद्ध की थकान और आर्थिक नुकसान से धीरे-धीरे बिखरने लगा। दूसरी तरफ, मराठों की आत्मनिर्भर और लचीली सैन्य रणनीति ने उन्हें अगले कई दशकों तक भारतीय राजनीति का प्रमुख खिलाड़ी बनाए रखा।