करवाचौथ और चंद्रमा का पौराणिक महत्व

करवाचौथ सिर्फ सुहागिनों का व्रत नहीं, बल्कि एक गहरी सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा का प्रतीक है। इस दिन महिलाएं सूर्योदय से लेकर चंद्रमा निकलने तक निर्जला उपवास रखती हैं और रात में चंद्र दर्शन के बाद अर्घ्य देकर व्रत खोलती हैं। इस पूरी परंपरा में चंद्रमा की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण मानी जाती है।

हिंदू पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्त करने के लिए सागर मंथन किया, तब कई दिव्य रत्न निकले। इन्हीं में एक था चंद्रदेव। भगवान विष्णु ने उन्हें अपने सिर पर स्थान दिया और देवी लक्ष्मी ने उन्हें भाई का दर्जा दिया। इसी कारण चंद्रमा को समृद्धि, सौभाग्य और शुद्धता का प्रतीक माना गया।

एक और कथा के अनुसार, जब चंद्रदेव का तेज बढ़ने लगा और ब्रह्मांड में असंतुलन हुआ, तब देवताओं ने भगवान शिव से सहायता मांगी। शिव ने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण किया, जिससे उनका तेज नियंत्रित हुआ और समस्त ब्रह्मांड में संतुलन स्थापित हुआ। इसी कारण शिव को “चंद्रशेखर” भी कहा जाता है।

करवाचौथ के दिन चंद्रमा को दीर्घायु और वैवाहिक सुख का प्रतीक माना जाता है। महिलाएं चंद्र दर्शन के समय छलनी से चंद्रमा को देखती हैं और फिर अपने पति को। यह प्रतीकात्मक रूप से दर्शाता है कि जीवन में पति का स्थान चंद्रमा की शीतलता और पवित्रता जैसा है। चंद्रमा को अर्घ्य देना न केवल आस्था का हिस्सा है, बल्कि एक आध्यात्मिक भाव भी है — जिसमें जीवनसाथी की लंबी उम्र और सुखमय दांपत्य की कामना निहित होती है।

रोचक बात यह है कि प्राचीन परंपराओं में चंद्र दर्शन को स्वास्थ्य से भी जोड़ा गया है। माना जाता है कि चंद्रमा की किरणों में शीतलता और मानसिक शांति देने वाली ऊर्जा होती है। करवाचौथ की रात, जब आकाश स्वच्छ और निर्मल होता है, तो चंद्रमा को निहारना स्वयं में एक शांतिपूर्ण अनुभव बन जाता है।

करवाचौथ का व्रत सिर्फ एक रस्म नहीं है, बल्कि पति-पत्नी के रिश्ते में श्रद्धा, त्याग और प्रेम की गहराई को दर्शाता है। इस व्रत में चंद्रमा एक साक्षी के रूप में उपस्थित रहता है, जो वैवाहिक जीवन के सुख, सौभाग्य और दीर्घायु की कामना को पवित्रता के साथ जोड़ता है।