डमरू का रहस्य : सृजन, विनाश और संतुलन का प्रतीक

डमरू को अक्सर हम केवल एक वाद्य यंत्र मानते हैं, लेकिन इसका महत्व इससे कहीं अधिक गहरा है। यह छोटा-सा यंत्र अपने भीतर पूरे ब्रह्मांड का दर्शन समेटे हुए है।

कहा जाता है कि भगवान शिव के हाथों में डमरू केवल संगीत का साधन नहीं, बल्कि सृजन (Creation), विनाश (Destruction) और संतुलन (Balance) का प्रतीक भी है। शिव जब तांडव करते हैं, तो उनके डमरू की ध्वनि से पूरे ब्रह्मांडीय ऊर्जा का संचार होता है। यह ऊर्जा ही सृष्टि के निर्माण, उसके विनाश और फिर संतुलन को कायम रखती है।

डमरू का एक सिरा सृजन का प्रतीक है, दूसरा सिरा विनाश का, और इनके बीच का भाग संतुलन को दर्शाता है। यही जीवन का सत्य भी है—जहाँ आरंभ है, वहीं अंत भी है। समय की इसी चक्रीय गति को डमरू बड़ी सहजता से समझा देता है।

डमरू हमें यह याद दिलाता है कि सृष्टि और प्रलय कोई विरोधाभास नहीं, बल्कि एक ही चक्र के दो पहलू हैं। संतुलन ही वह शक्ति है जो इन दोनों को एक सूत्र में बाँधकर ब्रह्मांड को टिकाए रखती है।

जैसा कि शास्त्रों में कहा गया है:
“जहाँ समय आरंभ होता है, अंत भी वहीं होता है।”

डमरू के दर्शन हमें यह संदेश देते हैं कि जीवन में हर उतार-चढ़ाव, हर आरंभ और अंत के बीच संतुलन बनाए रखना ही असली साधना है।