“‘आदिवासी’ शब्द की हकीकत: औपनिवेशिक दौर की चाल, जो आज भी समाज को बाँट रही है”

भारत के इतिहास में कई ऐसे शब्द गढ़े गए, जिनका मकसद सिर्फ पहचान बताना नहीं, बल्कि समाज में दूरी और अलगाव पैदा करना था। ‘आदिवासी’ शब्द भी इन्हीं में से एक है—जिसे औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने बनाया, ताकि भारतीय समाज की एकता पर चोट की जा सके।

इतिहासकार बताते हैं कि ब्रिटिश शासन में जनगणना और जातीय वर्गीकरण की प्रक्रिया को इस तरह डिजाइन किया गया कि समाज कृत्रिम वर्गों में बंट जाए। इसी दौरान ‘आदिवासी’ शब्द पेश किया गया, जिससे भारत के मूल निवासियों में एक अलग पहचान और मनोवैज्ञानिक दूरी की भावना पैदा हो।

स्वतंत्रता के बाद भी कई देशी इतिहासकार इस शब्द को मजबूती देते रहे—कभी अकादमिक बहस के नाम पर, तो कभी सामाजिक न्याय के एजेंडे में शामिल करके। लेकिन सामाजिक विशेषज्ञ मानते हैं कि यह सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक मानसिक दीवार है, जो सांस्कृतिक रूप से जुड़े समाज को टुकड़ों में बाँट रही है।

“हम सभी भारतवासी मूल निवासी हैं—हमारी पहचान एक है, चाहे भाषा हो, क्षेत्र हो या संस्कृति,” एक सांस्कृतिक चिंतक ने कहा।

औपनिवेशिक मानसिकता से उपजे शब्दों को छोड़कर हमें अपनी साझा पहचान अपनानी चाहिए।

विशेषज्ञों का मानना है कि इस विषय पर स्कूल, मीडिया और जन-विमर्श में ईमानदार चर्चा ज़रूरी है—ताकि आने वाली पीढ़ियों को यह समझ में आए कि कभी-कभी एक शब्द भी समाज की जड़ों को हिला सकता है।