जी डी अग्रवाल: गंगा के लिए एक संघर्षरत योद्धा

भ्रष्ट नेताओं, घोटालों, और स्कैम्स की चर्चा तो हम आए दिन सुनते ही रहते हैं, पर सभी लोग ऐसे नहीं होते। दुनिया में कुछ अच्छे लोग भी हैं जिन्होंने इस धरती को बेहतर बनाने की कोशिश की है। ऐसी ही एक शख्सियत थे , जी डी अग्रवाल | शायद आपने उनका नाम भी नहीं सुना क्योंकि मीडिया ने आपको अभी सुनाया नहीं। 111 दिन तक उपवास करके उन्होंने जान दे दी अपनी गंगा के लिए। ना भारतवासियों ने सुना, ना भारत की सरकार ने सुना। यह कहानी है प्रोफेसर जी डी अग्रवाल की, एक योद्धा जिसने गंगा नदी की रक्षा के लिए अपने प्राण त्याग दिए।

प्रोफेसर जी डी अग्रवाल का जन्म 1932 में उत्तर प्रदेश में हुआ। उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ रूडकी से सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और बाद में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कली से एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग में पीएचडी की। 1979 में वह भारत के सेंट्रल पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के पहले सदस्य सचिव थे और आईआईटी रूड़की में विजिटिंग प्रोफेसर भी थे। इसके अलावा, वह आईआईटी कानपुर के सिविल और एनवायरमेंटल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के हेड भी रह चुके थे।

गंगा नदी की स्थिति देखकर उन्होंने 2006 में यह निर्णय लिया कि वह इसे सुधारने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। गंगा पर बन रहे हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट्स के खिलाफ उन्होंने अपनी आवाज उठाई। उनका कहना था कि गंगा का जल विशेष है और उसमें पैथोजेनिक बैक्टीरिया को मारने की क्षमता है, लेकिन इन प्रोजेक्ट्स के कारण गंगा का प्रवाह कम हो रहा है और इसकी विशेषताएं भी खत्म हो रही हैं।

2008 में प्रोफेसर अग्रवाल ने पहली बार अनशन किया। उस समय की मनमोहन सिंह सरकार ने उनसे वादा किया कि गंगा के प्रवाह को बनाए रखने के लिए एक उच्चस्तरीय विशेषज्ञ समूह का गठन किया जाएगा। इसके बाद गंगा को नेशनल रिवर घोषित कर दिया गया, लेकिन विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट नहीं आई।

जनवरी 2009 में प्रोफेसर अग्रवाल ने दूसरा अनशन किया और 38 दिनों बाद सरकार ने वादा किया कि लोहारी नागपाल हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट पर काम बंद कर दिया जाएगा। फिर जुलाई 2010 में तीसरे अनशन के बाद उन्होंने इस प्रोजेक्ट को स्थायी रूप से बंद करवा दिया। 2012 में गंगा के शुरुआती 130 किमी हिस्से को इको-सेंसिटिव जोन घोषित किया गया, लेकिन उत्तराखंड सरकार ने इसका विरोध किया।

2 जुलाई 2011 को प्रोफेसर अग्रवाल ने सन्यास ले लिया और स्वामी ज्ञान स्वरूप सानंद बन गए। 2012 में, उन्होंने गंगा की बुरी हालत के लिए सरकार को दोषी मानते हुए चौथा अनशन किया। 2014 के आम चुनावों के दौरान, उन्हें उम्मीद थी कि नरेंद्र मोदी की सरकार गंगा की सफाई करेगी। लेकिन 2014 से 2018 तक, उन्होंने देखा कि इस सरकार ने भी गंगा के लिए कुछ खास नहीं किया।

2018 में, स्वामी सानंद ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दो पत्र लिखे, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला। 22 जून 2018 को उन्होंने अनशन शुरू किया और 111 दिन तक भूखे रहे। पुलिस ने उन्हें जबरदस्ती एम्स ऋषिकेश में भर्ती कर दिया। उन्होंने उत्तराखंड हाई कोर्ट में एक पिटीशन दायर की, लेकिन सरकार ने उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया।

स्वामी सानंद का कहना था कि मोदी सरकार और उनका नमामी गंगे प्रोग्राम केवल गंगा को साफ करने पर ध्यान देते हैं, जबकि गंगा का अविरल प्रवाह बनाए रखने पर नहीं। उन्होंने कहा, “मोदी जी धोखेबाज हैं और उन्होंने गंगा जी के साथ भी धोखा किया है।” 11 अक्टूबर 2018 को स्वामी सानंद का देहांत हो गया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके देहांत पर ट्वीट किया और कहा कि देश उनके गंगा के प्रति जज्बे को याद रखेगा। यह घटना यह दर्शाती है कि कैसे एक व्यक्ति ने अपने प्राण त्याग दिए, लेकिन उसकी मांगें सुनी नहीं गईं।

स्वामी सानंद के अलावा, स्वामी निगमानंद ने भी 2011 में गंगा के अवैध खनन के खिलाफ अनशन किया और उनकी भी मृत्यु हो गई। इसके बाद उनके आश्रम के लीडर स्वामी शिवानंद ने उपवास जारी रखा और अंत में उत्तराखंड सरकार ने हरिद्वार जिले में अवैध माइनिंग के खिलाफ एक आदेश जारी किया।

जी डी अग्रवाल की कहानी हमें यह सिखाती है कि जब तक हमारे देश में ऐसे संघर्षरत योद्धा रहेंगे, तब तक हमारी नदियों को बचाने का अभियान जारी रहेगा। उनकी तपस्या और बलिदान को हम कभी नहीं भूल सकते। उनकी प्रेरणा से हम सभी को पर्यावरण की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए और अपने देश की नदियों को स्वच्छ और अविरल बनाए रखने के लिए प्रयास करना चाहिए।

स्वामी सानंद और अन्य नदियों के संरक्षकों को मेरी श्रद्धांजलि।

सन्दर्भ :-

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