शारदीय नवरात्रि में घटस्थापना के साथ जौ या ज्वार बोने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। पहले दिन कलश स्थापित करते समय मिट्टी में जौ या ज्वार के बीज डाले जाते हैं। नौ दिनों तक ये अंकुरित होकर हरे पौधों में बदलते हैं। यह केवल पूजा का हिस्सा नहीं, बल्कि प्रकृति और जीवन के संतुलन को दर्शाने वाली एक सुंदर परंपरा है।
जौ को उगाना देवी शक्ति के आह्वान का प्रतीक माना जाता है। जैसे जैसे पौधे बढ़ते हैं, वैसे ही साधक के संकल्प और भक्ति में भी वृद्धि मानी जाती है। नवमी के दिन इन जौ के पौधों को देवी को अर्पित किया जाता है या घर में शुभ संकेत के रूप में रखा जाता है। माना जाता है कि पौधों की लंबाई आने वाले साल की सुख–समृद्धि का संकेत देती है।
स्वास्थ्य की दृष्टि से भी जौ और ज्वार महत्वपूर्ण हैं। दोनों ही अनाज रेशेदार और पौष्टिक होते हैं, जो पाचन को ठीक रखते हैं और शरीर को ऊर्जा देते हैं। पुराने समय में जब व्रत के दौरान शरीर को संतुलित आहार की जरूरत होती थी, तब जौ का सेवन ऊर्जा का अच्छा स्रोत बनता था।
नवरात्रि के नौ दिनों में बोए गए ये छोटे अंकुर हमें याद दिलाते हैं कि आस्था केवल मंत्रों तक सीमित नहीं, बल्कि धरती और जीवन के साथ जुड़ी हुई है। जौ–ज्वार उगाने की यह परंपरा हर घर में हरियाली, धैर्य और उम्मीद का संदेश देती है—कि साधना का फल धीरे–धीरे लेकिन निश्चित रूप से मिलता है।