अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स ने भारत के पहले एडवांस्ड स्ट्रोक ट्रीटमेंट डिवाइस सुपरनोवा स्टेंट के क्लिनिकल ट्रायल में अहम भूमिका निभाई है। एम्स इस ट्रायल का राष्ट्रीय समन्वय केंद्र और मुख्य एनरॉलिंग साइट रहा।
इस ट्रायल को ग्रासरूट ट्रायल नाम दिया गया था। एम्स के न्यूरोइमेजिंग और इंटरवेंशनल न्यूरोराडियोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉ. शैलेश बी. गायकवाड़ इसके नेशनल प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर थे।
डॉ. गायकवाड़ ने कहा कि यह ट्रायल भारत में स्ट्रोक के इलाज के क्षेत्र में एक बड़ा मील का पत्थर है। इससे देश में एडवांस स्ट्रोक केयर को नई दिशा मिली है।
ग्रासरूट ट्रायल के नतीजे प्रतिष्ठित जर्नल ऑफ न्यूरोइंटरवेंशनल सर्जरी में प्रकाशित हुए हैं। यह जर्नल ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ग्रुप का हिस्सा है।
पब्लिकेशन में बताया गया कि सुपरनोवा स्टेंट का उपयोग करने वाले गंभीर स्ट्रोक मरीजों में इलाज सुरक्षित और प्रभावी साबित हुआ। इसके नतीजे उम्मीद से बेहतर रहे।
इस साल की शुरुआत में सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन ने ट्रायल के डेटा को स्वीकार कर लिया। इसके बाद सुपरनोवा स्टेंट-रिट्रीवर को भारत में नियमित उपयोग की मंजूरी मिल गई।
यह भारत का पहला ऐसा स्ट्रोक डिवाइस है जिसे पूरी तरह देशी क्लिनिकल ट्रायल के आधार पर मंजूरी दी गई है। इससे मेक-इन-इंडिया पहल को बड़ा बल मिला है।
ग्रेविटी मेडिकल टेक्नोलॉजी के चीफ साइंटिफिक ऑफिसर डॉ. आशुतोष जाधव ने कहा कि इस ट्रायल ने भविष्य के बड़े और उच्च गुणवत्ता वाले शोध के लिए मजबूत आधार तैयार किया है।
एम्स की न्यूरोलॉजी प्रोफेसर डॉ. दीपती विवा ने मरीजों और उनके परिवारों की भागीदारी को अहम बताया। उन्होंने कहा कि इससे लाखों लोगों तक तेज और किफायती इलाज पहुंचाने में मदद मिलेगी।
ग्रेविटी के चीफ टेक्नोलॉजी ऑफिसर डॉ. शशवत एम. देसाई ने इसे केवल रेगुलेटरी मंजूरी नहीं बल्कि एक ऐतिहासिक कदम बताया। उन्होंने कहा कि भारत अब वैश्विक स्तर के क्लिनिकल ट्रायल करने में सक्षम है।
डॉ. गायकवाड़ ने ट्रायल में शामिल पूरी एम्स टीम का आभार जताया। इस टीम में कई वरिष्ठ डॉक्टर और विशेषज्ञ शामिल रहे, जिन्होंने इस सफलता में योगदान दिया।
ग्रेविटी मेडिकल टेक्नोलॉजी द्वारा विकसित सुपरनोवा स्टेंट भारत की विविध जनसंख्या को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया है। भारत में स्ट्रोक की समस्या अपेक्षाकृत कम उम्र में देखने को मिलती है।
ग्रासरूट ट्रायल के ग्लोबल प्रिंसिपल इन्वेस्टिगेटर और यूनिवर्सिटी ऑफ मियामी के प्रोफेसर डॉ. दिलीप यवागल ने बताया कि इस डिवाइस से साउथ-ईस्ट एशिया में 300 से अधिक मरीजों का इलाज हो चुका है।
अब यह डिवाइस भारत में ही बनाया जाएगा और किफायती कीमत पर उपलब्ध होगा। इससे हर साल स्ट्रोक से प्रभावित होने वाले करीब 17 लाख भारतीयों को नई उम्मीद मिलेगी।
इस ट्रायल और मंजूरी के साथ भारत ने स्ट्रोक के इलाज में सुरक्षा, प्रभावशीलता और किफायत की दिशा में बड़ा कदम बढ़ाया है। यह उपलब्धि भारत को मेडिकल रिसर्च और इनोवेशन में वैश्विक पहचान दिलाने वाली मानी जा रही है।
