आज का दिन भारतीय न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन के रूप में अंकित हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के लिए एक बड़ा ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जिसमें तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता (अलुमनी) का अधिकार दिया गया है। यह फैसला समाज में महिलाओं के अधिकारों को मजबूती देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस रिपोर्ट में हम इस फैसले के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
फैसला और उसका महत्व
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी अन्य धर्मों की महिलाओं की तरह गुजारा भत्ता का अधिकार है। यह अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ से संबंधित पूर्व भ्रम को दूर करता है। राजीव गांधी सरकार के समय में 1986 में पारित मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम ने इस विषय पर कई सवाल खड़े किए थे। इस अधिनियम ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को केवल ‘इद्दत’ (तलाक के बाद की अवधि) के दौरान ही गुजारा भत्ता का अधिकार दिया था। इसके बाद के वर्षों में, इस कानून की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठते रहे हैं।
केस का पृष्ठभूमि
यह मामला तब सुप्रीम कोर्ट में आया जब एक मुस्लिम व्यक्ति, मोहम्मद अब्दुल समद, ने तेलंगाना हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती दी। हाई कोर्ट ने उसे अपनी तलाकशुदा पत्नी को हर महीने ₹10,000 गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया था। समद ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जहां सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की समीक्षा की और अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता का अधिकार है।
सेक्शन 125 का महत्त्व
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में सेक्शन 125 (सीआरपीसी) के महत्व को रेखांकित किया। इस सेक्शन के तहत, किसी भी सक्षम व्यक्ति को अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता का गुजारा भत्ता देना अनिवार्य है, चाहे वह किसी भी धर्म का हो। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह सेक्शन सभी महिलाओं पर लागू होता है, चाहे वे किसी भी धर्म की हों। यह निर्णय सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति जॉर्ज मसी की बेंच ने सुनाया है।
कानूनी तर्क और विचार
समद के वकील ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क दिया कि 1986 का मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, जो राजीव गांधी सरकार के दौरान लागू हुआ था, एक विशेष कानून है और इसे सामान्य कानून (सीआरपीसी सेक्शन 125) पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महिलाओं के अधिकारों की बात आने पर विशेष कानून की बजाय सामान्य कानून (सीआरपीसी) को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गुजारा भत्ता किसी भी धर्म के व्यक्ति के लिए अनिवार्य है और इसे किसी धर्म के आधार पर रोका नहीं जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि गुजारा भत्ता कोई चैरिटी नहीं है, बल्कि यह महिलाओं का मौलिक अधिकार है। यह अधिकार धार्मिक सीमाओं से परे है और सभी महिलाओं के लिए समान रूप से लागू होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह फैसला महिलाओं की वित्तीय सुरक्षा और जेंडर इक्वलिटी के सिद्धांत को पुनः स्थापित करता है।
सामाजिक प्रतिक्रिया
इस फैसले का स्वागत विभिन्न सामाजिक संगठनों और महिला अधिकार संगठनों ने किया है। नेशनल कमीशन फॉर वुमेन की चेयरपर्सन रेखा शर्मा ने इस फैसले का स्वागत किया और इसे महिलाओं के अधिकारों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम बताया। उन्होंने कहा कि यह फैसला समाज में महिलाओं की स्थिति को और मजबूत करेगा और उन्हें वित्तीय सुरक्षा प्रदान करेगा।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और महत्व
इस फैसले की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए हमें 1985 के शाह बानो केस की ओर देखना होगा। इस केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सेक्शन 125 सभी धर्मों के लोगों पर लागू होता है और मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता का अधिकार है। हालांकि, इस फैसले के बाद राजीव गांधी सरकार ने 1986 का मुस्लिम महिला (तलाक के अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम पारित किया, जिसने इस मामले को और विवादास्पद बना दिया। आज का सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस विवाद को समाप्त करता है और सभी महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करता है।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह ऐतिहासिक फैसला मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को एक नई दिशा देता है। यह फैसला न केवल महिलाओं की वित्तीय सुरक्षा को सुनिश्चित करता है बल्कि समाज में जेंडर इक्वलिटी के सिद्धांत को भी मजबूत करता है। यह निर्णय भारतीय न्यायिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित होगा और महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक नया अध्याय लिखेगा।