सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला: अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आरक्षण में उपवर्गीकरण

पृष्ठभूमि

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के आरक्षण को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के अपने 20 साल पुराने निर्णय को पलटता है और राज्यों को अधिकार देता है कि वे SC और ST आरक्षण में उपवर्गीकरण कर सकते हैं। यह निर्णय सात न्यायाधीशों की बेंच द्वारा किया गया, जिसमें छह न्यायाधीशों ने समर्थन किया और एक ने विरोध किया।

2004 का निर्णय

2004 में सुप्रीम कोर्ट ने एक निर्णय में कहा था कि अनुसूचित जाति एक समान समूह है और इसमें कोई उपवर्गीकरण नहीं हो सकता। उस समय, सुप्रीम कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के एक मामले में यह फैसला सुनाया था कि SC और ST को एक समान समूह के रूप में देखा जाना चाहिए और उनके आरक्षण में कोई उपवर्गीकरण नहीं होना चाहिए। इस निर्णय ने राज्यों को SC और ST आरक्षण में किसी भी प्रकार के उपवर्गीकरण से रोक दिया था।

नया फैसला

हालांकि, इस नए फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को यह अधिकार दिया है कि वे SC और ST आरक्षण में उपवर्गीकरण कर सकते हैं। इस फैसले को मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने 6:1 के बहुमत से सुनाया। इस निर्णय के अनुसार, राज्य सरकारें अब SC और ST आरक्षण में विभिन्न उपवर्गों के लिए अलग-अलग आरक्षण प्रतिशत निर्धारित कर सकती हैं, बशर्ते कि वे इसे वैध आंकड़ों के आधार पर करें।

पंजाब का मामला

यह पूरा मामला 1975 में पंजाब सरकार द्वारा जारी एक अधिसूचना से शुरू हुआ था। उस समय, पंजाब सरकार ने SC आरक्षण को दो उपवर्गों में विभाजित किया था। पहले उपवर्ग में वाल्मीकि और मजहबी सिख समुदायों को प्राथमिकता दी गई थी क्योंकि वे पंजाब में सबसे अधिक आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए थे। इस नीति के तहत, इन समुदायों को शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण का पहला प्राथमिकता मिलनी थी।

आंध्र प्रदेश का मामला

2004 में, आंध्र प्रदेश ने भी SC आरक्षण में उपवर्गीकरण किया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक घोषित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि SC और ST को एक समान समूह के रूप में देखा जाना चाहिए और उनके आरक्षण में कोई उपवर्गीकरण नहीं होना चाहिए। इस फैसले के बाद, पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने भी 1975 की पंजाब सरकार की अधिसूचना को खारिज कर दिया।

2014 का पुनर्विचार

2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने पांच न्यायाधीशों की एक बेंच के माध्यम से इस मुद्दे पर पुनर्विचार करने का निर्णय लिया। उन्होंने पाया कि 2004 के फैसले को पुनर्विचार की आवश्यकता है और इसे सात न्यायाधीशों की बेंच को सौंपा गया।

सुप्रीम कोर्ट का तर्क

सुप्रीम कोर्ट का तर्क है कि जब से आरक्षण शुरू हुआ है, कुछ समुदायों ने पहले ही इसका लाभ प्राप्त कर लिया है और उनका उत्थान हो गया है। ऐसे में, अगर राज्य सरकारों को लगता है कि SC और ST के भीतर भी कुछ समुदायों को अब तक आरक्षण का पूरा लाभ नहीं मिला है, तो वे वैध आंकड़ों के आधार पर उनके लिए उपवर्गीकरण कर सकते हैं।

जस्टिस त्रिवेदी का असहमति

इस निर्णय में केवल एक न्यायाधीश, जस्टिस बेला त्रिवेदी, ने असहमति व्यक्त की। उन्होंने कहा कि राज्यों को उपवर्गीकरण का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि ऐसा कोई कानून नहीं है जो राज्यों को यह अधिकार देता है। उनका तर्क था कि यह संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत आता है, जिसमें केवल राष्ट्रपति को अनुसूचित जातियों की सूची बनाने का अधिकार है।

निर्णय का प्रभाव

इस फैसले का प्रभाव राज्यों पर पड़ेगा। अब राज्य सरकारों के पास अधिकार है कि वे SC और ST आरक्षण में उपवर्गीकरण कर सकते हैं। इससे राज्यों में विभिन्न समुदायों की मांग बढ़ सकती है और राज्य सरकारें उपवर्गीकरण कर सकती हैं। हालांकि, राज्यों को उपवर्गीकरण के लिए वैध आंकड़े प्रस्तुत करने होंगे और यह सुनिश्चित करना होगा कि SC और ST में सभी को आरक्षण का लाभ मिल सके।

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक महत्वपूर्ण मोड़ है जो राज्यों को SC और ST आरक्षण में उपवर्गीकरण का अधिकार देता है। यह निर्णय SC और ST समुदायों के उत्थान के लिए एक नया रास्ता खोलता है, जहां वे अब आरक्षण का अधिक समान और समावेशी लाभ प्राप्त कर सकते हैं। हालांकि, यह भी महत्वपूर्ण है कि राज्य सरकारें इस अधिकार का सही और न्यायपूर्ण तरीके से उपयोग करें और यह सुनिश्चित करें कि सभी योग्य लोगों को आरक्षण का लाभ मिले।

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