1 मई – विश्व मजदूर दिवस | World Labour Day

1 मई को विश्व स्तर पर मजदूर दिवस के रुप में मनाया जाता है l

यह दिवस श्रमिकों के सम्मान और अधिकारों के प्रति समाज में जागरूकता फैलाने के लिए किया जाता है l

श्रमीकवर्ग बड़ी कड़ी मेहनत करके देश के नागरिकों के जीवन को व्यवस्थित बनाने का प्रयास करते हैं l

श्रमिकों को उचित वेतन , सम्मान और उचित सुविधाएं तो मिलनी ही चाहीए, साथ ही उनको उत्तम समझ मिले ताकि उनका जीवनचरित्र भी अन्य लोगों के लिए अनुकरणीय हो जाए l

श्रमिकवर्ग में भी ऐसे कई व्यक्तित्व हो गए,जो आज समाज में पूजनीय और वंदनीय हैं l

संत रविदास, संत गोराबा कुम्हार, संत चोखा मेला , सूफी फकीर रबिया इत्यादि l

राबिया अलअदविया अलक़ैसिया : (714 – 801) अरबी. एक मुस्लिम संत और सूफी फकीर थीं।

राबिया के अधिकांश जीवन का आरंभिक वर्णन फ़रीदुद्दीन अत्तार ने किया है, जो बाद के सूफी संत और कवि थे।

वह अपने परिवार की चौथी बेटी थी और इसलिए उनका नाम रबीआ था, जिसका अर्थ है “चौथा”।

फ़रीदुद्दीन अत्तार के अनुसार, जब राबिया का जन्म हुआ था, उनके माता-पिता इतने गरीब थे कि घर में दीपक जलाने के लिए न तो तेल था और न ही उसे लपेटने के लिए कोई कपड़ा। उनकी माँ ने अपने पति से पड़ोसी से कुछ तेल उधार लेने के लिए कहा, लेकिन उसने अपने जीवन में कभी भी भगवान को छोड़कर किसी से कुछ भी नहीं मांगने का संकल्प लिया था। उसने पड़ोसी के दरवाजे पर जाने का नाटक किया और खाली हाथ घर लौट आये। रात को हज़रत मुहम्मद सहाब को ऊसने अपने सपने में देखा और उसे बताया,

“आपकी नवजात बेटी प्रभु की पसंदीदा है, और कई मुस्लिमों को सही रास्ते पर ले जाएगी।

हालाँकि, अपने पिता की मृत्यु के बाद, अकाल ने बसरा को पीछे छोड़ दिया। उसने अपनी बहनों से भाग लिया।

राबिया एक बिकी हुई गुलाम थी

उसका मालिक उससे कोई गलती हो जाए तो उसके हाथ पर कुर्सी रख कर दबा देता था

राबिया प्रार्थना करने के लिए रेगिस्तान में चली गई और एक तपस्वी बन गई, जिसने एकांत का जीवन जीया। उसे अक्सर संत महिलाओं की रानी होने के रूप में उद्धृत किया जाता है, और उसे “भगवान की शुद्ध बिना शर्त प्यार ” के रूप में उसकी पूरी भक्ति के लिए जाना जाता था। उसका उदाहरण वह है जिसमें पृथ्वी पर प्रेम करने वाला भक्त प्रियजन के साथ एक हो जाता है। 

वह वह थी जिसने पहले इश्क-ए-हकीकी  के रूप में जाना जाने वाला ईश्वरीय प्रेम का सिद्धांत निर्धारित किया था

एक श्रमिक हो ते हुए भी रबिया जेसी महान बन सकती है तो दूसरी श्रमिक महिला भी बन सकती है

चोखामेला (1300-1400) महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत थे जिन्होने कई अभंगों की रचना की है। इसके कारण उन्हें भारत का दलित-महार जाति पहला महान् कवि कहा गया है। सामाजिक-परिवर्तन के आन्दोलन में चोखामेला पहले संत थे, जिन्होंने भक्ति-काल के दौर में सामाजिक-गैर बराबरी को लोगों के सामने रखा। 

संत नामदेव (1270-1350) को उनका गुरु कहा जाता है

चोखामेला का जन्म महाराष्ट्र के महार जाति में हुआ था। वे मेहुनाराजा नामक गावं में पैदा हुए थे, जो जिला बुल्ढाना की दियोलगावं राजा तहसील में आता है।

चोखामेला बचपन से ही विठोबा(विष्णु) के भक्त थे। हिन्दू समाज-व्यवस्था में निम्न कही गई जाति के लोगों को और कोई आसरा तो था नहीं, अतयव गंभीर प्रकृति के लोग भगवान्-भक्ति को ही उद्धारक मानते थे। ये अलग बात है कि तथाकथित भगवान के मन्दिर में उन्हें प्रवेश भी करने नहीं दिया जाता था। एक बार चोखामेला पंढरपुर आये जहाँ संत नामदेव का कीर्तन हो रहा था। वे नामदेव महाराज के कीर्तन से मंत्र-मुग्ध हो गए।

नामदेव विठ्ठल-भक्त थे और तब वे पंढरपुर में ही रह रहे थे। नामदेव के आकर्षण और विठ्ठल-भक्ति ने चोखामेला को पंढरपुर खिंच लाया। वे अपनी पत्नी सोयरा और पुत्र कर्मामेला के साथ पंढरपुर के पास मंगलवेध में आ कर रहने लगे। चोखामेला नित्य विठोबा के दर्शन करने पंढरपुर आते और मन्दिर की साफ-सफाई करते। यद्यपि, महार होने के कारण मन्दिर में प्रवेश की उन्हें इजाजत नहीं थी। 

आज चोखामेला को महाराष्ट्र में महान संत के रूप में याद किया जाता है

संत तुकाराम (१६०८-१६५०), जिन्हें तुकाराम के नाम से भी जाना जाता है सत्रहवीं शताब्दी एक महान संत कवि थे जो भारत में लंबे समय तक चले भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख स्तंभ थे ।

तुकाराम का जन्म पुणे जिले के अंतर्गत देहू नामक ग्राम में शके 1520; सन्‌ 1598 में हुआ।

किंतु जब ये प्राय: 18 वर्ष के थे इनके मातापिता का स्वर्गवास हो गया तथा इसी समय देश में पड़ भीषण अकाल के कारण इनकी प्रथम पत्नी व छोटे बालक की भूख के कारण तड़पते हुए मृत्यु हो गई।

 इनकी दूसरी पत्नी जीजा बाई बड़ी ही कर्कशा थी। ये सांसारिक सुखों से विरक्त हो गए। चित्त को शांति मिले, इस विचार से तुकाराम प्रतिदिन देहू गाँव के समीप भावनाथ नामक पहाड़ी पर जाते और भगवान्‌ विट्ठल के नामस्मरण में दिन व्यतीत करते।

 कौटुंबिक आपत्तियों से त्रस्त एक सामान्य व्यक्ति किस प्रकार आत्मसाक्षात्कारी संत बन सका, इसका स्पष्ट रूप उनके अभंगों में दिखलाई पड़ता है।

इन संतों का जीवन हमको प्रेरणा देता है कि समाज व्यक्ति व्यवसाय से श्रमिक हो या बड़ा अधिकारी, लंबे समय के लिए उसी का प्रभाव रह जाता है जो अपने स्वार्थ को छोड़ कर परमार्थ का रास्ता पकड़ता है

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