2013 में, जब देशभर में संत श्री आशारामजी बापू के खिलाफ झूठी कहानियों का ज़हर फैलाया जा रहा था, तब भाजपा की वरिष्ठ नेता उमा भारती ने ट्विटर पर आकर खुलेआम बापूजी के पक्ष में बयान दिया था—स्पष्ट शब्दों में कहा था कि “संत निर्दोष हैं”।
लेकिन अब, सालों बाद, उसी उमा भारती ने अपने शब्द वापस ले लिए। बिना किसी ठोस तर्क, बिना किसी प्रमाण, बस राजनीति और पब्लिक इमेज के तराजू में अपनी “सो कॉल्ड” साख बचाने के लिए।
कहां गया वह साहस?
2013 में जो सच आपको दिख रहा था, क्या वह अब अचानक झूठ बन गया?
या फिर यह सिर्फ राजनीतिक मौसम का असर है—जहां हवा के रुख के साथ बयान भी बदल जाते हैं?
दोगलेपन की पराकाष्ठा
- पहले ट्वीट कर संत को निर्दोष बताना
- फिर, मीडिया और राजनीतिक दबाव में वही बात निगल जाना
- न अदालत के फैसले का इंतज़ार, न सच्चाई की परख—बस एक इमेज पॉलिशिंग एक्ट
जनता पूछ रही है…
जब एक समय आपने सच्चाई के लिए खड़े होकर संत को निर्दोष कहा था, तो आज पीछे हटना क्या यह नहीं दर्शाता कि आपके बयान सिर्फ अवसरवादी थे?
क्या यह वही “संस्कारी राजनीति” है, जिसमें सच स्थायी नहीं, बल्कि मौकापरस्त होता है?
बयान बदलने वाले नेता चाहे जितना पलटी मार लें, सच्चाई और जनता की आस्था को बदलना उनके बस में नहीं।