देश की अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाने के नाम पर हाल के वर्षों में सरकार ने कई ऐसे फैसले लिए हैं जिनसे चुनिंदा बड़े कारोबारी समूहों को बड़ा फायदा हुआ है। हवाई अड्डों से लेकर बंदरगाहों और ऊर्जा परियोजनाओं तक, कई अहम सौदे और नीतियां कुछ गिने-चुने औद्योगिक घरानों के पक्ष में जाती दिखती हैं।
सरकार का तर्क है कि बुनियादी ढांचे और निवेश को तेज़ करने के लिए बड़े खिलाड़ियों का साथ ज़रूरी है। लेकिन आलोचकों का कहना है कि इस प्रक्रिया में छोटे और मध्यम उद्योग पिछड़ रहे हैं और नीतिगत फैसलों में पारदर्शिता की कमी साफ दिखती है। बैंकिंग सहायता, सार्वजनिक संपत्तियों के निजीकरण और कर नीतियों पर लिए गए फैसलों ने भी यह धारणा मजबूत की है कि आर्थिक शक्ति सीमित हाथों में सिमट रही है।
विपक्षी दलों और कई स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों का मानना है कि सत्ता और धन के इस मेल से लोकतांत्रिक ढांचा कमजोर हो सकता है। उनका कहना है कि जब नीतियां कुछ कंपनियों के इर्द-गिर्द घूमने लगती हैं तो आम जनता को मिलने वाले लाभ और रोज़गार के अवसर प्रभावित होते हैं।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ज़रूरी है कि सरकार अपनी आर्थिक नीतियों पर साफ जवाब दे और नियामक संस्थाएं पारदर्शिता सुनिश्चित करें। जनता के टैक्स से चलने वाली परियोजनाओं पर खुली चर्चा और मीडिया की निर्भीक पड़ताल ही भरोसा कायम रख सकती है।