भारत के सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐसा फैसला सुनाया है, जिसने लाखों लोगों को हैरान कर दिया है। अदालत का कहना है कि –
“यदि शादीशुदा महिला गर्भवती होती है, तो भले ही गर्भ ठहराने वाला पुरुष कोई और हो, लेकिन उस बच्चे की क़ानूनी ज़िम्मेदारी महिला के पति की ही होगी।”
यानि अब पति सिर्फ पति नहीं, एक “क़ानूनी पालक” भी है — चाहे बच्चा उसका हो या न हो।
क्या ये न्याय है या ज़बरदस्ती?
सोचिए —एक ओर पत्नी शादी के बाहर रिश्ता बनाए, और दूसरी ओर पति को उस बच्चे की परवरिश का खर्च उठाना पड़े। ये कौन-सी न्याय व्यवस्था है?
अब सवाल उठते हैं:
क्या अब पति सिर्फ खर्चा उठाने की मशीन बनकर रह जाएगा?
क्या ये फैसला विवाह संस्था की नींव को हिला नहीं रहा?
क्या पुरुषों की भावनाओं और सम्मान का कोई मूल्य नहीं?
आज वही व्यवस्था एक निर्दोष पति पर दूसरे के बच्चे की ज़िम्मेदारी डाल रही है।क्या ये न्याय है?
ये कानून नहीं, पुरुषों के लिए फांसी का फंदा है।
आज इस पर चुप रहोगे तो कल यही आग आपके घर तक पहुंचेगी।शादी अब विश्वास नहीं, एक क़ानूनी जोख़िम बन गई है।
समाज को सोचना होगा:
अगर पत्नी को आज़ादी है, तो पति को ज़िम्मेदारी क्यों?अगर शादी का भरोसा ही खत्म हो गया, तो फिर शादी का मतलब क्या बचा?