प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 सितंबर को गुजरात के भावनगर में 34,200 करोड़ रुपये से ज़्यादा की समुद्री परियोजनाओं का उद्घाटन किया। उन्होंने कहा कि भारत को अब अपने जहाज खुद बनाने होंगे, ताकि विदेशी शिपिंग पर हर साल होने वाला करीब 6 लाख करोड़ रुपये का खर्च कम हो सके। सुनने में यह सपना बड़ा है, लेकिन लोगों के मन में सवाल भी उतने ही बड़े हैं।
मोदी ने ऐलान किया कि बड़े जहाजों के निर्माण को इंफ्रास्ट्रक्चर का दर्जा दिया जाएगा और 70,000 करोड़ रुपये की नई योजनाएँ लाई जाएँगी। लक्ष्य है कि 2030 तक दुनिया के जहाज निर्माण बाजार में भारत की हिस्सेदारी 5 प्रतिशत तक पहुँचे। पर दस साल से सत्ता में रहने के बाद भी आज तक इतनी विदेशी निर्भरता क्यों बनी हुई है, यह सोचने वाली बात है।
कार्यक्रम में उन्होंने पिछली सरकारों पर लापरवाही का आरोप लगाया। लेकिन लोग यह भी याद रखते हैं कि खुद उनकी सरकार को भी एक दशक हो चुका है। अगर हालात बदलने थे तो अब तक कुछ ठोस नतीजे दिखाई देने चाहिए थे। मंच से बार-बार पुराने राज की आलोचना सुनने के बजाय जनता अब काम का साफ हिसाब चाहती है।
भावनगर में जिन परियोजनाओं की शुरुआत हुई है, उनमें नए पोर्ट टर्मिनल, शिप रिपेयर यार्ड और प्रशिक्षण केंद्र शामिल हैं। ये सब कागज पर शानदार दिखते हैं, लेकिन भारत में बड़े निवेश पैकेजों की फाइलें अक्सर सालों तक धूल खाती रहती हैं। लोगों की उम्मीद है कि यह सिर्फ शिलान्यास का शोर बनकर न रह जाए।
सरकार कहती है कि इन योजनाओं से रोजगार बढ़ेगा और तटीय राज्यों में कारोबार को नई गति मिलेगी। पर भरोसा तब बनेगा जब काम जमीन पर दिखने लगेगा, सिर्फ भाषणों में नहीं। अभी के लिए तस्वीर यही है—नए वादे, पुराने आरोप और इंतजार कि समुद्र के इस बड़े सपने की लहरें वाकई किनारे तक पहुँचें।