“नई समिति का शोर, पुराने सवाल बरकरार”

मोदी सरकार ने 19 सितंबर 2025 को एक नई उच्चस्तरीय समिति बनाई है। कहा जा रहा है कि यह पैनल असम, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे सीमावर्ती राज्यों में जनसंख्या के बदलाव और बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ की जांच करेगा। काम बड़ा बताया जा रहा है—सुरक्षा एजेंसियों से आंकड़े जुटाने, ज़मीन पर कब्ज़े और रोज़गार पर असर जैसे मुद्दों पर रिपोर्ट तैयार करने तक।

लेकिन आम लोगों के लिए यह बस एक और सरकारी घोषणा जैसी लगती है। पिछले सालों में महंगाई, बेरोज़गारी और बाढ़-सूखा जैसी समस्याओं पर भी कई “उच्चस्तरीय” समितियां बनीं, पर नतीजे कितने ज़मीनी निकले, यह सबने देखा है। सवाल उठना लाज़मी है कि क्या यह पैनल सच में बदलाव लाएगा या सिर्फ़ डर और बहस का नया मुद्दा देगा।

प्रधानमंत्री ने आज़ादी दिवस पर “जनसांख्यिकीय मिशन” की बात की थी। अब वही मिशन इस समिति के ज़रिये आगे बढ़ रहा है। पर सीमा के गांवों में रहने वाले लोग तो रोज़मर्रा की परेशानियों से जूझ रहे हैं—रोज़गार की कमी, खेती की दिक्कतें, स्कूल और अस्पताल की हालत। उनके लिए आंकड़ों की फाइलें नहीं, जमीन पर दिखने वाला काम मायने रखता है।

सरकार कह रही है कि यह कदम देश की सुरक्षा के लिए है। लोग सोच रहे हैं कि अगर सुरक्षा ही असली मकसद है तो रोज़मर्रा की सुरक्षा—रोटी, पानी, इलाज—पर कब कोई उच्चस्तरीय समिति बनेगी।