एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि अमीर देशों की तुलना में गरीब और मध्यम-आय वाले देशों के लोग समान आवश्यक दवाओं के लिए अधिक कीमत चुका सकते हैं, जिससे गरीब देशों के मरीजों पर दवाओं की लागत का असमान बोझ पड़ता है।
अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी और ब्रिटेन के लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस के शोधकर्ताओं ने 2022 में 72 देशों की करीब 550 दवाओं के दामों का विश्लेषण किया।
अध्ययन में कहा गया कि दवाओं के ‘‘नाममात्र मूल्य’’ वैसे तो अमीर देशों में अधिक थे, लेकिन जब स्थानीय मुद्रा की क्रय शक्ति को ध्यान में रखा गया तो वास्तविक कीमतें गरीब देशों में ज्यादा पाई गईं।
इस अध्ययन के परिणाम ‘जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन’ (जेएएमए) हेल्थ फोरम में प्रकाशित हुए हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि 2022 में प्रति व्यक्ति दवा की औसत खुराक सबसे ज्यादा यूरोप (634 खुराक) और सबसे कम दक्षिण-पूर्व एशिया (143 खुराक) में उपभोग की गई।
भारत के संदर्भ में कहा गया कि यहां दवाओं के नाममात्र दाम तो 72 बाजारों में चौथे सबसे कम थे, लेकिन क्रय शक्ति समायोजन के बाद भारत 29वें स्थान पर रहा। वहीं, पाकिस्तान में नाममात्र कीमतें सबसे कम थीं, लेकिन वास्तविक कीमतें जर्मनी के करीब पाई गईं।
शोधकर्ताओं ने बताया कि ज्यादातर देशों में मानसिक और हृदय रोगों की दवाएं सबसे महंगी रहीं, जबकि हेपेटाइटिस बी और सी की दवाएं सबसे सस्ती थीं।
आठ आवश्यक दवाओं पर विशेष रूप से अध्ययन किया गया, जिनमें एमोक्सिसिलिन (निमोनिया), एसिटालोप्राम (डिप्रेशन) और इबुप्रोफेन (दर्द) शामिल हैं।
इसमें कहा गया है कि भारत में न्यूनतम मजदूरी पर काम करने वाले लोगों को हेपेटाइटिस बी और एचआईवी/एड्स के इलाज में इस्तेमाल होने वाली टेनोंफोविर डिसोप्रोक्सिल की मासिक खुराक अगर खरीदना हो तो उन्हें इसके लिए करीब 10 दिन तक काम करना पड़ता है।
शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष में कहा, ‘‘हालांकि दवाएं गरीब और मध्यम-आय वाले देशों में नाममात्र रूप से सस्ती दिख सकती हैं, लेकिन स्थानीय क्रय शक्ति को ध्यान में रखने पर वे कम वहनीय साबित होती हैं।’’
उन्होंने आगे कहा, ‘‘इससे पता चलता है कि कुछ गरीब देशों पर दवाओं की लागत का ज़्यादा बोझ है।’’