2 अगस्त को भारत के महान वैज्ञानिक, शिक्षक, राष्ट्रसेवक और स्वदेशी विज्ञान आंदोलन के अग्रदूत आचार्य Prafulla Chandra Ray की जयंती मनाई जाती है। वे केवल एक रसायनशास्त्री नहीं, बल्कि भारतीय रसायन विज्ञान के जनक, स्वदेशी उद्योग के प्रणेता और युवा वैज्ञानिकों के प्रेरणास्रोत थे।
📚 प्रारंभिक जीवन: एक जिज्ञासु बालक से विश्वविख्यात वैज्ञानिक तक
Prafulla Chandra Ray का जन्म 2 अगस्त 1861 को बंगाल के खुलना जिले (अब बांग्लादेश में) के ररुली कतिपाड़ा गांव में हुआ। गांव के स्कूल में पढ़ाई की शुरुआत हुई, लेकिन बचपन में वे अक्सर स्कूल से भागकर पेड़ों की डालियों पर छिप जाते थे।
इसके बाद वे कोलकाता गए, जहाँ हरे स्कूल और मेट्रोपॉलिटन कॉलेज में शिक्षा ली।
हालाँकि उनका पहला प्रेम साहित्य था, लेकिन प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्रोफेसर अलेक्जेंडर पेडलर के व्याख्यानों ने उनकी रुचि रसायन विज्ञान की ओर मोड़ दी।
🎓 विदेश में शिक्षा और वापसी पर वैज्ञानिक कार्य
कोलकाता विश्वविद्यालय से FA की डिग्री के बाद, उन्होंने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में पढ़ाई की, जहाँ उन्होंने B.Sc. और D.Sc. दोनों उपाधियाँ प्राप्त कीं।
1888 में भारत लौटने के बाद, उन्होंने जगदीश चंद्र बोस के साथ एक वर्ष तक काम किया और फिर प्रेसीडेंसी कॉलेज में रसायन विज्ञान के सहायक प्राध्यापक बने।
🔬 शोध कार्य और वैश्विक पहचान
उनका सबसे महत्वपूर्ण शोध कार्य मरकरी नाइट्राइट और उसके व्युत्पन्न यौगिकों पर था, जिसने उन्हें वैश्विक मान्यता दिलाई।
विकसित उपकरणों के अभाव और रासायनिक बंधों की सीमित जानकारी के बावजूद उन्होंने जो खोजें कीं, वे उस समय के लिए क्रांतिकारी थीं।
वरिष्ठ रसायनज्ञ अनिमेष चक्रवर्ती के अनुसार:
“वे उस भूमि में अंकुर ले आए जहां कुछ भी नहीं था।”
🏭 स्वदेशी रसायन उद्योग के जनक
Prafulla Chandra Ray का मानना था कि भारत की प्रगति उद्योगों से ही संभव है।
उन्होंने अपने घर से ही एक छोटी प्रयोगशाला शुरू की और 1901 में ‘बंगाल केमिकल एंड फार्मास्युटिकल वर्क्स लिमिटेड’ की स्थापना की — जो आज भी भारत की सबसे पुरानी फार्मा कंपनी के रूप में कार्यरत है।
महात्मा गांधी ने एक बार कहा था:
“सादा वेशभूषा, सरल आचरण और महान वैज्ञानिक — विश्वास करना कठिन है, पर यह प्रफुल्ल चंद्र रे ही हैं।”
🎓 शिक्षक, दार्शनिक और दानवीर
1916 में वे प्रेसीडेंसी कॉलेज से सेवानिवृत्त हुए और फिर यूनिवर्सिटी साइंस कॉलेज में प्राध्यापक बने।
1921 में उन्होंने 60 वर्ष की उम्र में अपने वेतन का पूरा हिस्सा (लगभग ₹2 लाख) रसायन विभाग के विकास और शोध छात्रवृत्तियों के लिए दान कर दिया — यह उस युग में अभूतपूर्व था।
🕯️ अंतिम वर्ष और सम्मान
82 वर्ष की आयु में, 16 जून 1944 को उनका निधन कोलकाता में हुआ।
उनके योगदानों के लिए 1917 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘कंपेनियन ऑफ द ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर’ की उपाधि से सम्मानित किया।
🌟 विरासत: केवल वैज्ञानिक नहीं, एक युगपुरुष
प्रफुल्ल चंद्र रे न केवल प्रयोगशाला में महान थे, बल्कि एक वैचारिक योद्धा, स्वदेशी विचारक, और भारतीय युवा वैज्ञानिकों के मार्गदर्शक भी थे।
वे हमें याद दिलाते हैं कि साधनहीनता कभी प्रतिभा की सीमा नहीं बनती, अगर उद्देश्य राष्ट्रहित हो।