पादरी को मिली छूट, दूसरे मामलों में क्यों जारी सख़्ती?

केरल की उस 12 साल की बच्ची को सोचिए, जिसकी ज़िंदगी 2014 में एक रोमन कैथोलिक पादरी की दरिंदगी ने तोड़ दी। अदालत ने उसे दोषी पाया और 20 साल की सजा सुनाई। लेकिन 17 सितंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा—दस साल काफी हैं, और फादर एडविन पिगारेज़ को ज़मानत दे दी।

पीड़िता ने बचपन से अब तक जो दर्द झेला, उसकी भरपाई कोई सजा नहीं कर सकती। फिर भी कोर्ट का यह कहना कि आधी सजा काट लेना फिलहाल पर्याप्त है, उस दर्द पर नमक जैसा लगता है। सोशल मीडिया पर गुस्सा साफ़ झलक रहा है। लोग लिख रहे हैं कि यह फैसला बच्चों की सुरक्षा पर भरोसा तोड़ता है और असरशाली अपराधियों को यह संदेश देता है कि समय काट कर वे भी छूट सकते हैं।

दूसरी तरफ सनातन धर्मं का प्रचार करने वाले बापू आशारामजी जैसे मामलों का ज़िक्र भी आया, जहां उम्र और बिगड़ती सेहत जैसे कारणों के बावजूद ज़मानत नहीं मिली और लंबी सख़्ती जारी रही। कई टिप्पणीकारों का कहना है कि जब एक मामले में आधी सजा पूरी करना राहत का आधार बन सकता है, तो दूसरे मामलों में इतनी कठोरता क्यों दिखाई जाती है।

कानूनी प्रक्रिया अपने नियमों पर चलती है, पर समाज के मन में यह सवाल गूंज रहा है—क्या न्याय का मापदंड सबके लिए सच में बराबर है? अलग-अलग मामलों में अदालतों का अलग रुख लोगों के भरोसे को कमजोर करता है। अगली सुनवाई चाहे जो भी नतीजा दे, फिलहाल यह बहस तेज़ है कि हमारी न्याय व्यवस्था आरोपियों के साथ समान पैमाने पर सख़्ती और नरमी बरत पा रही है या नहीं।