सुप्रीम कोर्ट का आदेश आया—दिल्ली-एनसीआर की गलियों में घूमते सभी आवारा कुत्तों को आठ हफ़्तों में शेल्टर होम भेजा जाए। आदेश सुनते ही हज़ारों-लाखों लोग इंडिया गेट से लेकर राजधानी की गलियों तक उतर पड़े। बैनर, पोस्टर, नारे—पूरा आंदोलन मानो कुत्तों के अधिकारों के लिए एक जन-क्रांति बन गया।
लेकिन सवाल ये है—जब बात गौ माता की आती है, जिसे हिंदू संस्कृति में “माता” का दर्जा दिया गया है और जिसे रोज़ाना कसाईखानों में बेरहमी से काटा जाता है, तो वही सड़कें अचानक सूनी क्यों हो जाती हैं? क्या हमारी संवेदनाएँ अब प्रजाति-विशेष और मीडिया-प्रायोजित आंदोलनों पर आधारित हो गई हैं?
सरकार भी इस चयनित करुणा की गवाही देती नज़र आती है—कुत्तों के लिए हाई-प्रोफ़ाइल केस, लेकिन गौ माता के लिए केवल फाइलों में घूमते प्रस्ताव। और हाँ, इस मामले में किसी को सड़कों पर उतारने या माइक थामने की ज़रूरत शायद महसूस ही नहीं होती।
जनता भी कमाल की है—इंस्टाग्राम पर पशु-प्रेमी, ग्राउंड पर चुप्पा-प्रेमी। क्योंकि सच्चाई ये है कि आंदोलन वही है, जिसे टीवी कैमरे कवर करें और जिस पर लाइक-शेयर की गारंटी हो।
शायद समय आ गया है कि हम तय करें—हमें केवल “कुत्तों के अधिकार” चाहिए, या सच में “सब जीवों के अधिकार” चाहिए। वरना ये दोगलापन हमारी इंसानियत को ही शेल्टर होम भेज देगा।