जब बिल्ला 786 आस्था बन गया और मंदिर सिर्फ एक सीढ़ी
आज हिंदी सिनेमा में अगर किसी लेखक जोड़ी का सबसे ज़्यादा जिक्र होता है,
तो वो हैं Salim-Javed —
जिन्होंने “एंग्री यंग मैन” को जनम दिया, और भगवान को स्क्रिप्ट से बाहर कर दिया।
दीवार का नायक मंदिर की सीढ़ियों तक आता है, लेकिन अंदर नहीं जाता।
भगवान को डाँट लगाता है —
“आज खुश तो बहुत होगे तुम।”
पर गले में 786 वाला बिल्ला ज़रूर लटकाता है —
क्योंकि ईश्वर सवाल बन गया, लेकिन खुदा जवाब।
🎭 और परिवार…?
Salim-Javed के नायकों को देखिए —
पिता हमेशा दोषी, माँ हमेशा रोती हुई,
और बेटा हमेशा गुस्से में।
फिल्मों में परिवार एक “संघर्ष का कारण” है,
न कि एक सांस्कृतिक आधार।
क्या यही हमारे समाज की जड़ें हैं?
क्या यही क्रांति है?
या विनाश disguised as विद्रोह?
🎞 सिनेमा जो जोड़ता था, अब तोड़ने लगा है
जब विमल रॉय “सजग संवेदना” लिखते थे,
ऋषिकेश मुखर्जी “करुणा” को कहानी बनाते थे,
और बासु चटर्जी मध्यमवर्गीय ज़िंदगी की सादगी दिखाते थे —
तब सलीम-जावेद भीड़ में तालियां बटोर रहे थे,
लेकिन आत्मा नहीं छू रहे थे।
आज जब युवा पीढ़ी संस्कार से भटक रही है,
तो उसे आइकॉन नहीं, आदर्श चाहिए।
❗ तो सवाल यह है…
क्या हमें फिर से उन्हीं क्रोधित पात्रों की कहानियाँ सुनानी चाहिए,
जिन्होंने परिवार, धर्म और परंपरा को केवल ड्रामा समझा?
या
अब समय आ गया है उन लेखकों को याद करने का
जिन्होंने सिनेमा के पर्दे पर जीवन की गरिमा दिखाई थी?
सत्यकाम, आनंद, अनुपमा, अभिमान,
या उससे भी पहले ख्वाजा अहमद अब्बास, पंडित मुखराम शर्मा और सचिन भौमिक जैसे लेखकों की कहानियाँ?
इनमें संवेदना थी, संस्कृति थी,
परिवार का आदर था,
और सबसे अहम — जीवन के वास्तविक संघर्षों की गरिमा थी।
यह सभी लेखक साझी संस्कृति के नाम पर भावुकता का ढोंग नहीं करते थे।
उन्होंने करीम चाचा और रहीम बाबा को घोषित महामानव बनाकर नहीं दिखाया —
बल्कि भारतीय यथार्थ का यथासंभव चित्रण किया।
Salim-Javed ने भले ही धूम मचाई हो,
पर उन्होंने कभी वह संस्कृति नहीं रची, जो समाज को जोड़ती है।
हमारा उद्देश्य सिर्फ सिनेमा पर बात करना नहीं है,
बल्कि समाज को एक सही दिशा में सोचने को प्रेरित करना है।