“चाय, बिस्कुट और जनता का बजट – सब हज़म!”

चाय की चुस्की या जेब की सफ़ाई? असली खेल आया सामने!

नई दिल्ली।
कभी “चायवाले” के नाम पर भावुकता बेचकर सत्ता की कुर्सी तक पहुँचने वाले शख़्स पर अब नया खुलासा—“शुरू से ही चोर, और आज भी वही खेल जारी”

सूत्रों का दावा है कि बचपन में चाय कम, कहानियाँ ज़्यादा बेची जाती थीं। “विकास” नाम का शक्कर तो हमेशा कम पड़ा, लेकिन जनता की जेब से चम्मच भर-भरकर ‘माल’ निकालने की कला कमाल की रही।

राजनीतिक गलियारों में चाय का प्याला अब शक की नज़रों से देखा जा रहा है। विपक्ष का तंज—

“चाय से शुरुआत, अब बिस्कुट भी पूरा डुबोकर खा गया!”

जनता की राय
“पहले लगा चाय पिलाएगा, अब लगता है कप, तश्तरी और शक्करदान सब ले जाएगा।”


इस ‘चाय’ की असली पत्ती बहुत महँगी है… क्योंकि इसका बिल जनता पीढ़ी-दर-पीढ़ी भर रही है!