सर्वधर्म समभाव का कड़वा सच: इतिहास से सीख या फिर गलती की पुनरावृत्ति?

सदियों से “सर्वधर्म समभाव” को हमारी सांस्कृतिक पहचान और सहिष्णुता का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन क्या यह विचारधारा हमेशा हमारे लिए लाभकारी साबित हुई? या फिर इतिहास के पन्नों में इसके कुछ ऐसे अध्याय भी हैं, जो हमें चेतावनी देते हैं कि अति-समभाव, हमारी ही अस्मिता के पतन का कारण बन सकता है?

इतिहास की गहराइयों में उतरें तो एक कड़वा सच सामने आता है—जहां-जहां हमने अपने धर्म की कीमत कम की, वहां-वहां किसी अन्य मज़हब ने न केवल अपनी पकड़ मजबूत की, बल्कि हमारे अस्तित्व पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया।

इतिहास के आईने में—हमारी चूक, उनका कब्ज़ा

  • इराक – कभी ज्ञान, विज्ञान और संस्कृति का वैश्विक केंद्र, आज कट्टरपंथ और हिंसा का गढ़।
  • सीरिया – बहुसांस्कृतिक धरोहर का देश, जो अब गृहयुद्ध और विनाश का प्रतीक है।
  • परशिया (ईरान) – कला और दर्शन का गढ़, लेकिन अब धार्मिक कट्टरता की दीवारों में कैद।
  • रावलपिंडी – 76 वर्ष पूर्व भारत का हिस्सा, आज पूरी तरह अलग पहचान के साथ।
  • ढाका – जो कभी हमारा था, अब राजनीतिक और वैचारिक विरोध का केंद्र।
  • कश्मीर – शांति और सौंदर्य की भूमि, जिसकी आज की स्थिति हमारे सामने है।

इन उदाहरणों में एक समानता साफ नज़र आती है—
जहां-जहां हमने अपने धर्म की जड़ों को कमजोर किया और “सर्वधर्म समभाव” का अतिरेक अपनाया, वहां- वहां दूसरों ने अपने मज़हबी झंडे गाड़े और हमारी भूमि, संस्कृति और पहचान पर कब्ज़ा जमाया।

गाज़ी बनने का गर्व, और राष्ट्र का बंटवारा

इतिहास गवाह है कि ऐसे मौकों पर, जो अपने को “गाज़ी” कहते हैं, उन्होंने खुलेआम जश्न मनाए—मेले लगाए, गर्व से अपनी जीत का ऐलान किया, और हमारी अस्मिता को कमजोर करते चले गए।
इन घटनाओं को सिर्फ किताबों में पढ़कर छोड़ देना पर्याप्त नहीं। इन्हें समझना होगा, ताकि वही गलती दोहराई न जाए।

कश्मीर से सबक: अतीत की पुनरावृत्ति न हो

कश्मीर का बदलता स्वरूप हमें चेतावनी देता है।
यदि हम अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान से समझौता करते रहेंगे, तो अतीत की त्रासदी भविष्य में फिर से लिखी जाएगी।

निष्कर्ष:
इतिहास केवल पढ़ने के लिए नहीं, बल्कि सीखने के लिए होता है।
यदि हम चेत गए तो आने वाली पीढ़ियां गर्व से कहेंगी कि हमने अपने धर्म, अपनी भूमि और अपनी अस्मिता की रक्षा की। और यदि नहीं—तो शायद भविष्य के इतिहासकार हमारे बारे में भी यही लिखेंगे कि “उन्होंने इतिहास पढ़ा, लेकिन उससे कुछ सीखा नहीं।”