सुप्रीम कोर्ट में 16 सितंबर की घटना से उपजा विवाद

डॉ. राकेश किशोर का कहना है कि 16 सितंबर को जब एक व्यक्ति ने मूर्ति के सिर टूटने को लेकर पीआईएल दायर की, तो मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने पहले ही सुनवाई में उस पर टिप्पणी कर दी — “जाइए, मूर्ति से प्रार्थना कीजिए कि वह अपना सिर खुद जोड़ ले।” यही बात उन्हें गहराई से चोट पहुंचा गई। उनका तर्क था कि जब अन्य समुदायों के मामलों पर अदालतें संजीदगी दिखाती हैं, तो सनातन धर्म से जुड़े मुद्दों को हल्के में क्यों लिया जाता है।

उन्होंने उदाहरण दिए — हद्वानी में रेलवे की ज़मीन पर तीन साल से सुप्रीम कोर्ट की स्टे ऑर्डर, नूपुर शर्मा केस में कोर्ट की टिप्पणी, और जलीकट्टू या दही हांडी जैसे सांस्कृतिक मामलों पर दखल। इन सबको जोड़ते हुए उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का रवैया उन्हें “आहत” कर गया।

डॉ. किशोर के मुताबिक, 16 सितंबर के बाद से उन्हें नींद नहीं आ रही थी। वे कहते हैं कि “परमात्मा की शक्ति मुझे नींद से उठा-उठाकर कहती थी कि देश जल रहा है और तुम सो रहे हो।” इसी भावना ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए प्रेरित किया, भले ही उनका अपना कोई केस उस दिन सूचीबद्ध नहीं था।

वे हृदय रोगी हैं और एक वाल्व पूरी तरह से खराब है। इसके बावजूद उन्होंने दवाइयों का इंतज़ाम कर के दो दिन की तैयारी के साथ कदम उठाया। उन्हें यह भी आश्चर्य हुआ कि मुख्य न्यायाधीश ने बाद में उन्हें रिहा कर दिया — जिसे लेकर वे खुद भी असमंजस में दिखे कि इसे ‘उपकार’ मानें या कुछ और।

घटना के बाद उन्हें पुलिस ने हिरासत में लेकर कई घंटे पूछताछ की। डॉ. किशोर ने पुलिस के व्यवहार की सराहना की, बताया कि उन्हें चाय, बिस्किट और खाना भी दिया गया। लेकिन इसी बीच बार काउंसिल ने उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उनका लाइसेंस सस्पेंड कर दिया।
उनका आरोप है कि बिना नोटिस और बिना अनुशासन समिति बनाए सीधे आदेश जारी कर दिया गया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।

घटना के बाद कई विपक्षी नेताओं ने इसे “दलित जज के खिलाफ हमला” बताया। इस पर डॉ. किशोर ने कहा कि उनकी जाति पर कोई उन्हें जवाब नहीं दे सकता — “हो सकता है मैं भी दलित हूं।” उन्होंने इसे एकतरफा नैरेटिव बताया और कहा कि पहले सब सनातनी थे, बाद में सामाजिक और राजनीतिक कारणों से पहचानें बदलीं।

उनका कहना है कि वे अहिंसा के पक्षधर हैं लेकिन न्यायपालिका को भी संवेदनशीलता बढ़ाने की ज़रूरत है। लाखों केस वर्षों से लंबित पड़े हैं और आम लोगों को न्याय के लिए लंबा इंतज़ार करना पड़ता है।
वे अपने कदम पर अडिग हैं — “मुझे कोई अफसोस नहीं है। परमात्मा ने जो करवाया, वही हुआ। मैं केवल साक्षी हूं।”

यह विवाद केवल एक व्यक्ति की नाराज़गी नहीं, बल्कि उस बेचैनी की अभिव्यक्ति है जो तब उपजती है जब न्यायपालिका के निर्णयों को धार्मिक भावनाओं के चश्मे से देखा जाने लगता है। यह सवाल भी खड़ा होता है कि अदालतें अपने शब्दों और व्यवहार में कितनी संवेदनशील रहें, खासकर तब जब मामला आस्था से जुड़ा हो।