उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को करीब 11 राज्यों की जेल नियमावली के भेदभावपूर्ण प्रावधानों को खारिज कर दिया तथा जाति के आधार पर काम के वितरण और कैदियों को अलग-अलग वार्ड में रखने के चलन की निंदा की।
भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने जेलों में जाति आधारित भेदभाव समाप्त करने के लिए कई निर्देश जारी करते हुए कहा, ‘‘राज्य का इस तरह के भेदभाव को रोकने का एक सकारात्मक दायित्व है।’’
पीठ ने राज्यों को तीन महीने के भीतर अपने जेल नियमावली में संशोधन करने का निर्देश भी दिया।
पीठ ने कहा, ‘‘ऐसे सभी प्रावधान असंवैधानिक माने जाते हैं। सभी राज्यों को निर्देश दिया जाता है कि वे फैसले के अनुसार (जेल नियमावली में) बदलाव करें…।’’
प्रधान न्यायाधीश ने खचाखच भरी अदालत कक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा, ‘‘आदतन अपराधियों का उल्लेख आदतन अपराधी कानूनों के संदर्भ में होगा और राज्य कारागार नियमावली में आदतन अपराधियों का उल्लेख यदि जाति पर आधारित है तो उसे असंवैधानिक घोषित किया जाता है।’’
शीर्ष अदालत ने जेलों के अंदर जाति-आधारित भेदभाव के मामलों का भी स्वतः संज्ञान लिया और शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री को निर्देश दिया कि इसे तीन महीने बाद ‘जेलों के अंदर भेदभाव के संबंध में’ शीर्षक के साथ सूचीबद्ध किया जाए। उसने राज्यों से फैसले की अनुपालन रिपोर्ट प्रस्तुत करने को कहा।
शुरुआत में, सीजेआई ने कहा कि जनहित याचिका में राज्य जेल नियमावली के प्रावधानों को भेदभावपूर्ण होने के आधार पर चुनौती दी गई है। सीजेआई ने कहा कि कुछ राज्यों में कैदियों की पहचान के आधार पर जेलों के शारीरिक श्रम, बैरकों का विभाजन किया गया है।
उन्होंने कहा, ‘‘हमने कहा है कि औपनिवेशिक काल के आपराधिक कानून औपनिवेशिक काल के बाद के दौर को भी प्रभावित करते हैं…संवैधानिक कानूनों को नागरिकों की समानता और गरिमा को बनाए रखना चाहिए।’’
उन्होंने कहा, ‘‘हमने (फैसले में) मुक्ति, समानता और जाति-आधारित भेदभाव के खिलाफ लड़ाई की अवधारणा पर भी चर्चा की है और कहा है कि इसे रातोंरात नहीं हासिल जा सकता है।’’
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि यह अदालत जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ जारी संघर्ष में योगदान दे रही है और फैसले में संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) के तहत गैर-भेदभाव के पहलुओं पर गौर किया गया है।
उन्होंने कहा कि फैसले के विश्लेषण के आधार पर कुछ भेदभाव-रोधी सिद्धांत उभर कर सामने आते हैं और ऐसे उदाहरण ‘प्रत्यक्ष, परोक्ष’ और रूढ़िबद्ध दोनों हो सकते हैं, जो इस तरह के भेदभाव को बढ़ावा दे सकते हैं।
फैसले में कहा गया है, ‘‘राज्य का इसे रोकने का सकारात्मक दायित्व है और अदालतों को परोक्ष और प्रणालीगत भेदभाव के दावों पर निर्णय लेना चाहिए…कैदियों को सम्मान प्रदान न करना औपनिवेशिक काल की निशानी है, जब उन्हें मानवीय गुणों से वंचित किया जाता था। संविधान में यह अनिवार्य किया गया है कि कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार किया जाना चाहिए और जेल प्रणाली को कैदियों की मानसिक और शारीरिक स्थिति के बारे में पता होना चाहिए।’’
फैसले में कहा गया है कि यदि कैदियों से अमानवीय काम करवाया जाता है और उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है, तो इसके लिए राज्य उत्तरदायी होंगे।
सीजेआई ने कहा, ‘‘जातियों के प्रति घृणा और अवमानना ने ऐसी जातियों के प्रति अंतर्निहित और व्यापक पूर्वाग्रह को दर्शाया। औपनिवेशिक इतिहास से पता चलता है कि उनके प्रशासन में सामाजिक पदानुक्रम को आत्मसात किया गया था।’’
फैसले में कहा गया, ‘‘अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और विमुक्त जनजातियों के खिलाफ भेदभाव जारी है और अदालतों को सुरक्षात्मक कानूनों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि हाशिए पर पड़े लोगों को तकलीफ न हो।
सीजेआई ने कहा, ‘‘जातियों का इस्तेमाल हाशिये पर पड़े लोगों के खिलाफ भेदभाव करने के लिए नहीं किया जा सकता।’’
फैसले में कहा गया है कि कैदियों के बीच इस तरह का भेदभाव नहीं हो सकता और उनकी जातियों के आधार पर उनके पृथक्करण से उनका पुनर्वास नहीं होगा। इस तरह की प्रथा ‘‘विभेदों को समझने’’ की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।
सीजेआई ने कहा, ‘‘हमने माना है कि हाशिए पर पड़े लोगों को सफाई और झाड़ू लगाने का काम देना और ऊंची जाति के लोगों को खाना पकाने का काम देना अनुच्छेद 15 (यह धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव को रोकता है) का उल्लंघन है।’’
पीठ ने उत्तर प्रदेश के एक कानून का हवाला दिया, जिसमें प्रावधान है कि साधारण कारावास की सजा काट रहा व्यक्ति नीचा समझा जाने वाला या तुच्छ कार्य नहीं करेगा, बशर्ते उसकी जाति ऐसे कार्य न करती हो।
पीठ ने कहा, ‘‘हमारा मानना है कि कोई भी समूह मैला ढोने वाले वर्ग के रूप में या नीचा समझे जाने वाला काम करने या न करने के लिए पैदा नहीं होता है। कौन खाना बना सकता है और कौन नहीं, यह छुआछूत के पहलू हैं, जिनकी अनुमति नहीं दी जा सकती…. सफाईकर्मियों को ‘चांडाल’ जाति से चुना जाना पूरी तरह से मौलिक समानता के विपरीत है और संस्थागत भेदभाव का एक पहलू है।’’
उसने कहा, ‘‘कैदियों को खतरनाक परिस्थितियों में सीवर टैंकों की सफाई करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।’’ इसने आदेश देते हुए कहा कि पुलिस को जाति-आधारित भेदभाव के मामलों से निपटने के लिए ईमानदारी से काम करना होगा।
पीठ ने कहा कि कुछ वर्गों के कैदियों को जेलों में काम का उचित वितरण पाने का अधिकार होगा।
उच्चतम न्यायालय ने इस साल जनवरी में महाराष्ट्र के कल्याण की मूल निवासी सुकन्या शांता द्वारा दायर एक याचिका पर केंद्र और उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल सहित 11 राज्यों से जवाब मांगा था।
याचिका में केरल जेल नियमों का हवाला दिया गया और कहा गया कि वे आदतन और पुन: दोषी ठहराए गए अपराधी के बीच अंतर करते हैं।