पूर्व वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में कहा था, “सुप्रीम कोर्ट अचूक नहीं, बस अंतिम है। उसके ऊपर सिर्फ़ भगवान हैं और वे भी फैसलों को ठीक नहीं करते।” उनकी यह बात आज फिर गूंज रही है, क्योंकि लोग पूछ रहे हैं—अगर कोर्ट ही आख़िरी सहारा है तो गलत फैसले कौन सुधारेगा?
जेटली का इशारा साफ था। अदालतें जब-तब सरकार को फटकारती हैं, आदेश देती हैं, लेकिन खुद के तीन करोड़ से ज़्यादा लंबित मामलों का क्या? अगर अदालतें ही अपना काम समय पर नहीं निपटा पा रहीं, तो लोगों को न्याय कौन देगा?
यही चिंता उस समय और गहरी हो जाती है जब हम उन संतों और आध्यात्मिक गुरुओं को देखते हैं जिन्हें विवादित मामलों में सज़ा मिली, जबकि उनके समर्थक लगातार उन्हें निर्दोष बताते रहे। फैसला आ जाने के बाद भी उनके लिए लड़ने का दरवाज़ा लगभग बंद हो जाता है। परिवार, अनुयायी और आम लोग यह सोचकर बेचैन रहते हैं कि कहीं कोई सच दब तो नहीं गया।
कानून के जानकार कहते हैं कि कोर्ट का सम्मान ज़रूरी है, लेकिन इंसाफ़ सिर्फ़ अंतिम मुहर से पूरा नहीं होता। इंसाफ़ तब होता है जब जांच निष्पक्ष हो, सुनवाई समय पर हो और निर्दोष को बिना वजह सालों जेल न झेलनी पड़े।
जेटली का “ऊपर केवल भगवान” वाला वाक्य यही याद दिलाता है कि अदालतें भी इंसानों से बनी हैं। अगर वे गलत ठहराएँ तो तकलीफ़ सिर्फ़ एक फैसले की नहीं, पूरे समाज की होती है। सवाल यही है कि क्या हमारी व्यवस्था इतनी मजबूत है कि निर्दोष को बचा सके और दोषी को सज़ा दे सके—बिना किसी डर या देरी के।