जब एक की सुरक्षा पर करोड़ों, और करोड़ों की ज़िंदगी पर चुप्पी
कभी आपने राष्ट्रपति भवन देखा है?
जी नहीं, फोटो नहीं… असल में देखा है?
उसके ऊँचे-ऊँचे दरवाज़े, सुनहरी छतें, लाल कालीन, और चारों तरफ तैनात हजारों सुरक्षाकर्मी।
मानो कोई सम्राट तख्त पर बैठा हो — और हम सब सिर्फ उसके राज्य के “नागरिक” नहीं, “प्रजा” बन गए हों।
₹350 करोड़ सिर्फ एक व्यक्ति के लिए!
900 गार्ड, 1500 दिल्ली पुलिस के जवान, और न जाने कितनी एजेंसियां सिर्फ इसलिए कि हमारे देश के “प्रथम नागरिक” को कोई परेशानी न हो।
और उस राष्ट्रपति भवन पर सालाना खर्च?
₹350 करोड़।
अब आप सोचिए — क्या आपने अपने माता-पिता की दवा में कटौती की है?
क्या आपके बच्चे को सरकारी स्कूल में दाखिल करवाना पड़ा क्योंकि प्राइवेट स्कूल की फीस भारी पड़ रही थी?
क्या आपने पेट्रोल, दाल, दूध की बढ़ती कीमतों को देखकर खर्च कम किए?
तो फिर आपको जानने का हक है कि एक ऐसे व्यक्ति पर, जिसे आपने सीधे चुना भी नहीं, देश इतना खर्च क्यों कर रहा है?
हम 84 करोड़ “सामान्य” लोग क्या सिर्फ वोट बैंक हैं?
84 करोड़ लोग ऐसे हैं जो पूरे साल अपनी ज़रूरतें जोड़ते हैं, काटते हैं, गिनते हैं – और फिर भी पूरा नहीं पड़ता।
पर हमारा सिस्टम एक व्यक्ति पर बेहिसाब खर्च करता है… क्योंकि वो “विशेष” है।
तो क्या हम सब “अविशेष” हैं?
क्या हमारा योगदान सिर्फ इतना है कि हम वोट डालें और फिर पाँच साल तक चुप रहें?
मंत्रीगण या राजघराने?
प्रधानमंत्री, उप-प्रधानमंत्री, वित्त मंत्री, वाणिज्य मंत्री…
हर किसी के नाम पर गाड़ियाँ, बंगलों, विदेशी दौरों और सिक्योरिटी का एक अंतहीन खर्चा चलता है।
ये वही लोग हैं जो मंचों से कहते हैं –
“हम तो जनता के सेवक हैं।”
सच में?
अगर ये सेवक हैं, तो राजा कैसे होते होंगे?
एक सवाल जो हर भारतीय से पूछा जाना चाहिए
“क्या ये लोकतंत्र है या सुविधाजनक राजशाही?”
अगर देश का सर्वोच्च पद आम आदमी से इतना कट चुका है कि उसकी सुरक्षा पर हजारों जवान तैनात हों और खर्च हजारों करोड़ का हो…
तो फिर ये सवाल तो बनता है कि ये सिस्टम “जनता के लिए” है या “जनता से दूर”?
समाधान का रास्ता क्या है?
- राष्ट्रपति भवन का खर्च तर्कसंगत हो
- मंत्रियों के भत्तों में पारदर्शिता और कटौती हो
- आम नागरिकों की ज़रूरतें प्राथमिकता बनें
- सत्ता के केंद्र में “विशेष लोग” नहीं, “विशेष जिम्मेदारी” हो
निष्कर्ष: हम सिर्फ दर्शक नहीं, भागीदार भी हैं
अगर हम हर बार यही सोचकर चुप रह जाएंगे कि
“ये तो चलता है…”
“हम क्या कर सकते हैं…”
तो फिर समझ लीजिए —
सिस्टम बदलेगा नहीं, और हर साल 350 करोड़ की रौशनी में हमारा अंधेरा और गहरा होता जाएगा।