पीला फूल और जंगल की आहट

दूर से देखें तो जंगल की पहाड़ियों पर पीले फूल ऐसे लगते हैं मानो प्रकृति ने सोना लुटा दिया हो। लेकिन इस चमक के पीछे एक स्याह सच्चाई छिपी है। सेन्ना स्पेक्टाबिलिस नाम का यह विदेशी पेड़, जिसे 1980 के दशक में सुंदरता और छांव के लिए लाया गया था, आज केरल और तमिलनाडु के जंगलों का सिरदर्द बन चुका है।

यह पौधा इतनी तेजी से फैल रहा है कि घास और झाड़ियाँ खत्म हो रही हैं। मिट्टी बंजर हो रही है, जलस्रोत सूख रहे हैं। जिन हिरणों और हाथियों के लिए ये जंगल बसे थे, उनका पेट अब भर नहीं पा रहा। नतीजा यह कि वे गाँवों और खेतों की ओर रुख कर रहे हैं। किसान नुकसान झेल रहे हैं और इंसान–जानवर टकराव रोज़मर्रा की हकीकत बनता जा रहा है।

यह महज़ एक पर्यावरणीय समस्या नहीं है। यह हमारी सोच की गलती है। हमने विकास और सजावट की अंधी दौड़ में एक विदेशी प्रजाति को अपने जंगलों में जगह दी और अब उसकी कीमत पीढ़ियाँ चुका रही हैं। प्रकृति से छेड़छाड़ के परिणाम हमेशा देर से सामने आते हैं, लेकिन जब आते हैं तो संभालना मुश्किल हो जाता है।

सकारात्मक पहलू यह है कि वायनाड में “वायनाड मॉडल” के तहत स्थानीय लोग और वन विभाग मिलकर इस पौधे को जड़ से उखाड़ रहे हैं। जहाँ से सेन्ना हटाया गया, वहाँ फिर से घास उग रही है, पक्षियों की चहचहाहट लौट रही है और हाथियों की मौजूदगी के संकेत मिल रहे हैं। यह बताता है कि प्रकृति अब भी हमें सुधरने का मौका दे रही है।

लेकिन सवाल यह है कि क्या यह कोशिश केवल वायनाड तक सीमित रहेगी? नीलगिरि बायोस्फीयर रिज़र्व और आसपास के अन्य जंगल भी इसी खतरे की जकड़ में हैं। अगर तुरंत कदम न उठाए गए तो कल को यह सुनहरे फूल हमारे पूरे दक्षिण भारत के जंगलों की हरियाली निगल लेंगे।

आज ज़रूरत है दूरदृष्टि की। हमें यह मानना होगा कि हर पौधा हर ज़मीन के लिए सही नहीं होता। जंगल सिर्फ सुंदरता के लिए नहीं, जीवन और संतुलन के लिए होते हैं। अगर हमने यह सबक अभी न लिया, तो कल बहुत देर हो जाएगी।