बीकेएस आयंगर की साधना ने योग को दुनिया तक पहुंचाया

20वीं सदी के मध्य में लंदन में एक विश्व-प्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन गंभीर शारीरिक और मानसिक संकट से गुजर रहे थे। इसी दौर में उनकी मुलाकात भारतीय योग गुरु बीकेएस आयंगर से हुई।

यह मुलाकात केवल एक कलाकार के स्वास्थ्य सुधार तक सीमित नहीं रही। इसने आधुनिक योग के वैश्विक स्वरूप को हमेशा के लिए बदल दिया।

मेनुहिन आयंगर के शिष्य ही नहीं बने, बल्कि उनके सबसे बड़े समर्थक भी बने। 1954 में उनके प्रोत्साहन पर आयंगर यूरोप पहुंचे।

यहीं से योग का अंतरराष्ट्रीय विस्तार शुरू हुआ। कुछ दशकों में बीकेएस आयंगर दुनिया के सबसे प्रभावशाली योगाचार्यों में शामिल हो गए।

टाइम पत्रिका ने 2004 में उन्हें दुनिया के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों में स्थान दिया। भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण से सम्मानित किया।

बीकेएस आयंगर का जन्म 1918 में कर्नाटक के बेलूर गांव में हुआ था। बचपन गरीबी, कुपोषण और गंभीर बीमारियों से भरा रहा।

कमजोर शरीर और कठोरता ने उनके योग दर्शन की नींव रखी। उनके लिए योग फिटनेस नहीं, बल्कि जीवन रक्षा का साधन था।

इसी अनुभव से उन्होंने सटीक संरेखण और योग प्रॉप्स के उपयोग पर जोर दिया। यह दृष्टि आगे चलकर अयंगर योग की पहचान बनी।

15 वर्ष की उम्र में उन्होंने मैसूर में टी कृष्णामचार्य के मार्गदर्शन में योग सीखना शुरू किया। 1937 में पुणे भेजे जाने के बाद उनका स्वतंत्र प्रयोग शुरू हुआ।

पुणे में अकेले अभ्यास के दौरान उन्होंने आसनों को परिशुद्ध और बुद्धिमान क्रिया के रूप में विकसित किया। यहीं से प्रॉप्स आधारित योग का जन्म हुआ।

ब्लॉक, बेल्ट, कंबल और दीवार की रस्सियों ने योग को सभी के लिए सुलभ बना दिया। शारीरिक सीमाएं योग अभ्यास में बाधा नहीं रहीं।

अयंगर योग ने लंबे समय तक आसन धारण करने की परंपरा विकसित की। इससे शरीर के साथ मन की स्थिरता भी प्राप्त होती है।

यह पद्धति धीरे-धीरे एक चिकित्सीय मॉडल के रूप में उभरी। अस्थमा, उच्च रक्तचाप और रीढ़ संबंधी समस्याओं में इसका उपयोग बढ़ा।

1966 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘लाइट ऑन योगा’ आज भी योग शिक्षा की मानक पुस्तक मानी जाती है। इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

1975 में पुणे में स्थापित रमामणि आयंगर स्मारक योग संस्थान अयंगर योग का वैश्विक केंद्र बना। यह संस्थान आज भी उनकी विरासत को आगे बढ़ा रहा है।