“संत न टूटता है, न झुकता है — वो बस तपता है”
हाल ही में POCSO केस से बरी हुए बृजभूषण शरण सिंह के बयान — “मैंने कुछ नहीं खोया, बल्कि बहुत कुछ पाया है” — ने एक गहरी और अनकही सच्चाई को फिर से उजागर किया: उन निर्दोष संत की पीड़ा, जो झूठे यौन शोषण के आरोपों में वर्षों से न्याय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
यह सिर्फ एक कानूनी लड़ाई नहीं है। यह चरित्र, साधना और समाज सेवा की अग्नि परीक्षा है। जिन संतों ने अपना जीवन संयम, सेवा और अध्यात्म को समर्पित किया, उन्हें राजनीति, साजिश और झूठ के जाल में फंसाने की कोशिशें बार-बार होती रही हैं।
सदियों से आदर्श, अचानक अपराधी क्यों?
भारत में संतों को श्रद्धा, संयम और नैतिकता का प्रतीक माना जाता रहा है। लेकिन जैसे ही किसी संत पर आरोप लगता है — बिना जांच, बिना सबूत — मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है।
2013 में एक प्रसिद्ध संत श्री आशा राम जी बापू लगे आरोप आज तक साबित नहीं हुए, लेकिन उनका मौन मीडिया की शोरगुल में कहीं खो गया। क्या यह न्याय है?
POCSO कानून: ज़रूरी, लेकिन संतुलन के साथ
बच्चों की सुरक्षा के लिए बना POCSO कानून अत्यंत आवश्यक है। लेकिन इसके झूठे इस्तेमाल के उदाहरण लगातार सामने आ रहे हैं:
दिल्ली हाईकोर्ट ने झूठा केस दर्ज करने पर महिला पर ₹1 लाख का जुर्माना लगाया।
मद्रास और केरल हाईकोर्ट ने निर्दोषों को वर्षों बाद रिहा किया।
तो क्या संतों के मामले में हम पूरी सच्चाई को देखने के बजाय धारणाओं पर विश्वास कर बैठे?
मौन ही तपस्या है
एक संत के शिष्य कहते हैं,
> “गुरुदेव ने कभी पलटकर जवाब नहीं दिया। उनका मौन ही उनकी सबसे बड़ी आवाज़ है।”
और यही मौन, वर्षों की तपस्या के बाद भी उनकी आस्था और सच्चाई को जिंदा रखे हुए है।
जब संतों पर वार होता है…
तब चोट सिर्फ एक व्यक्ति को नहीं लगती — एक परंपरा, एक संस्कृति, और करोड़ों श्रद्धालुओं की भावना पर होती है।
संतों का प्रभाव, समाज में उनकी भूमिका और अनुयायियों की संख्या उन्हें अक्सर राजनीतिक और वैचारिक निशाने पर ला देती है।
अंत में…
POCSO हो या कोई और कानून — सत्य और झूठ में फर्क करना जरूरी है।
हर आरोपी अपराधी नहीं होता, और हर चुप्पी कमजोरी नहीं होती।
🙏
“संतों की परीक्षा समय ले सकता है, पर सत्य की विजय अवश्य होती है।”