शहर हो या कस्बा, प्राइवेट अस्पतालों के तौर-तरीके को लेकर लोगों की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं। कई परिजन बताते हैं कि हल्की तकलीफ के बावजूद उन्हें तरह-तरह के टेस्ट, महंगी दवाइयां और आईसीयू में भर्ती करने की सलाह दी जाती है। इलाज से ज़्यादा ध्यान बिल बढ़ाने पर रहता है, ऐसा कई मरीजों का अनुभव है।
एक ईमानदार डॉक्टर की स्वीकारोक्ति इस खेल को साफ़ करती है। उनका कहना है,
“मैं डॉक्टर हूं या सेल्समैन! मैनेजमेंट कहता है—इस महीने ICU में इतने बेड भरने चाहिए, OT खाली नहीं रहना चाहिए। जो मरीज OPD में है, उसे भर्ती कराओ। हम डॉक्टर हैं या किसी इंश्योरेंस एजेंट की तरह कोटा पूरा करने वाले सेल्समैन?”
मरीजों की दिक्कत
मरीजों के परिजन बताते हैं कि एक बार भर्ती होने के बाद खर्च का अंदाज़ा लगाना मुश्किल हो जाता है। दवाओं से लेकर जांच तक, हर चीज़ का बिल चढ़ता चला जाता है। सवाल करने पर डर दिखाया जाता है कि इलाज रोकने से खतरा बढ़ सकता है।
व्यवस्था की कमजोरियां
सरकारी निगरानी कागज़ों तक सीमित है। अस्पतालों की आकस्मिक जांच या पारदर्शी बिलिंग जैसी व्यवस्थाएं ढीली हैं। शिकायत दर्ज करने की प्रक्रिया इतनी लंबी और उलझी है कि ज़्यादातर लोग चुप रह जाते हैं।
रास्ता क्या है
स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि निजी अस्पतालों पर सख्त मॉनिटरिंग, इलाज की दरों की स्पष्ट घोषणा और बिल की वास्तविक समय पर जाँच जैसे कदम जरूरी हैं। जब तक मरीजों को जानकारी और शिकायत का आसान तरीका नहीं मिलेगा, यह लूट रोकना मुश्किल रहेगा।
यह कहानी किसी एक डॉक्टर या अस्पताल की नहीं, बल्कि उस पूरे सिस्टम की है जिसमें इलाज के नाम पर कमाई का दबाव मरीजों की जान पर भारी पड़ रहा है।