जीवन में सबसे पहला रिश्ता माँ से जुड़ता है। जन्म के क्षण से ही वह हमें संभालती है, चलना-फिरना सिखाती है और बोलना भी सिखाती है। उसकी गोद ही पहला विद्यालय होती है, जहाँ बच्चा बिना किताब-कापी के सीखना शुरू कर देता है। माँ के संस्कार ही वह बीज हैं, जिनसे हमारे जीवन का वृक्ष पनपता है। उसका आशीर्वाद हर मुश्किल में सहारा बनता है।
पर इंसान की यात्रा यहीं तक सीमित नहीं रहती। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, सवाल भी गहरे होते जाते हैं—जीवन का असली उद्देश्य क्या है, दुखों से मुक्ति कैसे मिले, सच्चा सुख कहाँ मिलेगा? इन प्रश्नों का उत्तर केवल माँ से नहीं, बल्कि सद्गुरु से मिलता है।
सद्गुरु केवल पढ़ा-लिखा देने वाला शिक्षक नहीं होता। वह जीवन का रहस्य खोलता है, सही दिशा दिखाता है। जिस तरह नाविक बिना दिशा-सूचक यंत्र के समुद्र में भटक सकता है, वैसे ही मनुष्य बिना सद्गुरु के सही राह नहीं पकड़ पाता। सद्गुरु मन के अंधेरे को मिटाकर भीतर प्रकाश जगाते हैं।
माँ हमें जीवन का आधार देती है—संस्कार, ममता और जीने का हौसला। वहीं सद्गुरु उस जीवन को ऊँचाई देते हैं—ज्ञान, विवेक और आत्मिक शांति। माँ का स्थान हृदय में है, और सद्गुरु का स्थान आत्मा के गहरे भीतर।
कहा भी गया है कि माँ जीवन की नींव है और सद्गुरु उस पर खड़ा होने वाला शिखर। नींव मजबूत हो तो शिखर भी टिकता है, और शिखर ऊँचा हो तो नींव का महत्व और बढ़ जाता है। यही दोनों मिलकर इंसान को संपूर्ण बनाते हैं।