आज से 132 साल पहले, 11 सितंबर 1893 को स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद के मंच से वह ऐतिहासिक उद्बोधन दिया था जिसने पूरी दुनिया को भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म की महानता से परिचित कराया। उनके पहले ही शब्द “सिस्टर्स एंड ब्रदर्स ऑफ अमेरिका” पर पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा था। यह केवल एक भाषण नहीं था, बल्कि भारत की सहिष्णुता, विश्व बंधुत्व और आध्यात्मिक धरोहर का उद्घोष था।
गौर करने वाली बात यह भी है कि ठीक 100 साल बाद, 1993 में उसी शिकागो शहर में संत श्री आशारामजी बापू ने भी अपने उद्बोधन से भारतीय संस्कृति और वेदांत की महिमा को विश्वपटल पर प्रस्तुत किया था। उनके प्रवचनों ने भी यह संदेश दिया कि सनातन परंपरा सिर्फ धार्मिक सीमाओं तक नहीं, बल्कि पूरे मानव समाज को जोड़ने और जीवन जीने की कला सिखाने वाली है।
विवेकानंद जी हों या संत आशारामजी बापू—दोनों ने पश्चिमी जगत को भारत के ज्ञान, योग, ध्यान और अध्यात्म की गहराई से परिचित कराया। यह हमें याद दिलाता है कि भारतीय संस्कृति का प्रभाव समय और पीढ़ियों से परे है।
आज इस अवसर पर यह आवश्यक है कि हम उनके विचारों को पढ़ें, समझें और अपने जीवन में उतारें। क्योंकि राष्ट्र और समाज का निर्माण व्यक्ति के भीतर से शुरू होता है।