संयुक्त परिवार से एकल परिवार तक की यात्रा

कभी भारतीय समाज की सबसे बड़ी ताकत संयुक्त परिवार हुआ करते थे। यह सिर्फ रहने का तरीका नहीं था, बल्कि साथ जीने और साथ बढ़ने की परंपरा थी। लेकिन बदलते समय और पाश्चात्य जीवनशैली की नकल ने इस परंपरा को धीरे-धीरे कमजोर कर दिया। आज हालत यह है कि जहाँ कभी चार पीढ़ियाँ एक छत तले रहती थीं, वहीं अब परिवार छोटे-छोटे हिस्सों में बँट गए हैं।

लिव-इन रिलेशनशिप जैसी अवधारणाएँ भी तेजी से सामान्य होती जा रही हैं। इसके चलते परिवार की जड़ों में जो अपनापन और सुरक्षा थी, वह टूटने लगी है। नतीजा यह हुआ कि माता-पिता और बुजुर्ग, जो कभी सम्मान और निर्णय का केंद्र होते थे, अब कई बार उपेक्षा झेलते हैं और ओल्ड ऐज होम्स तक पहुँच जाते हैं।

संस्कृति आधारित समाधान की ओर

हालाँकि इस परिदृश्य में भी उम्मीद की किरण है। परिवारों को जोड़ने और संबंधों को पुनर्जीवित करने वाली पहलें इस संकट का हल दिखाती हैं। मातृ-पितृ पूजन दिवस जैसी परंपराएँ युवाओं को यह सिखाती हैं कि माता-पिता ही जीवन के वास्तविक आदर्श हैं। ऐसी परंपराएँ अपनाने से न सिर्फ बुजुर्गों को सम्मान मिलेगा, बल्कि परिवारों का बिखराव भी रुकेगा।

यह समाज के लिए आत्मचिंतन का समय है। सवाल यह है कि क्या हम आँख मूँदकर पश्चिम की नकल करेंगे या फिर अपनी संस्कृति से मिले मूल्यों को संजोएँगे। संयुक्त परिवार भले ही पूरी तरह वापस न आ पाएँ, लेकिन यदि छोटे परिवार भी रिश्तों की गरिमा और बुजुर्गों का मान रखना सीख लें, तो समाज में अपनापन और संतुलन बना रह सकता है।