आत्मा की खोज: विज्ञान के सवाल और अध्यात्म का उत्तर

जब एक महिला ऑपरेशन टेबल पर थी, उसका दिल रुक चुका था, दिमाग़ काम नहीं कर रहा था। डॉक्टरों ने उसे मृत मान लिया। लेकिन थोड़ी देर बाद वह लौटी और बोली—“मैंने सब देखा, वो आरी भी जिससे मेरी खोपड़ी काटी जा रही थी।”

अब सवाल है—जब आँखें बंद थीं, दिमाग़ शांत था, तब उसने कैसे देखा? यही वह बिंदु है जहाँ विज्ञान रुक जाता है और अध्यात्म जवाब देता है।

विज्ञान की खोज और उसकी सीमाएँ

अरस्तु ने आत्मा को न्यूमा कहा, डेसकार्ट ने कहा यह दिमाग़ की पीनियल ग्रंथि में रहती है। डॉक्टर मैकडूगल ने तो इसका वजन तौलने की कोशिश की और दावा किया कि आत्मा 21 ग्राम की होती है।
बच्चों के पुनर्जन्म की कहानियाँ, नियर डेथ एक्सपीरियंस और आत्माओं से बात करने के दावे—सब कुछ खोजा गया। पर हर जगह विज्ञान “लेकिन” पर आकर ठहर गया।

अध्यात्म की दृष्टि

भारतीय अध्यात्म कहता है—“आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है।” (गीता 2.20)
शरीर मिट्टी है, पर आत्मा शाश्वत है। यह सिर्फ़ एक जन्म नहीं, कई जन्मों की यात्रा करती है। जिन अनुभवों को विज्ञान “नियर डेथ एक्सपीरियंस” कहता है, अध्यात्म उन्हें आत्मा का शरीर से अस्थायी अलगाव मानता है।

जब पम रेनल्स ने ऑपरेशन टेबल पर सब कुछ देखा, तो वह सिर्फ़ वैज्ञानिक पहेली नहीं, बल्कि आत्मा की स्वतंत्र चेतना का प्रमाण भी हो सकता है।

क्यों जरूरी है यह समझना?

आज इंसान हर चीज़ को प्रयोगशाला में तौलना चाहता है। लेकिन आत्मा का अस्तित्व सिर्फ़ तर्क का विषय नहीं, अनुभव का विषय है। ध्यान, साधना और आंतरिक यात्रा के बिना यह रहस्य कभी खुल नहीं सकता।

विज्ञान बार-बार यह पूछता है—“क्या आत्मा है?”
अध्यात्म शांत स्वर में कहता है—“खोजो, अनुभव करो और स्वयं देख लो।”

सदियों से विज्ञान आत्मा को मापने, पकड़ने, समझने की कोशिश कर रहा है। लेकिन जो शाश्वत है, वह सीमित प्रयोगशाला की दीवारों में कैद नहीं हो सकता। आत्मा को जानने का रास्ता बाहर नहीं, भीतर जाता है।

आख़िरकार सवाल यह है—क्या आप आत्मा को किताबों और शोधपत्रों से समझना चाहेंगे, या ध्यान और साधना से अनुभव करना चाहेंगे?