हमारे समाज में पिछले कुछ सालों से लगातार एक ही आवाज़ उठती रही है—बेटी बचाओ। बेटियों की सुरक्षा, शिक्षा और अधिकारों पर जोर दिया गया। यह ज़रूरी भी था, क्योंकि उनके साथ होने वाले अपराध और भेदभाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लेकिन इसी बीच एक दूसरा पहलू अक्सर दबा दिया गया—बेटों की सुरक्षा और सम्मान की चर्चा।
निशा शर्मा का केस इसका बड़ा उदाहरण है। साल 2003 में उसने शादी से पहले दूल्हे पर दहेज मांगने का आरोप लगाया और बारात लौटा दी। मीडिया और समाज ने उसे नायिका बना दिया। लेकिन नौ साल बाद सामने आया कि आरोप झूठे थे। सच ये था कि निशा अपने बॉयफ्रेंड से शादी करना चाहती थी। अदालत ने भी उस पर कोई कार्रवाई नहीं की। वहीं दूसरी तरफ, दूल्हे का करियर तबाह हो गया, एक साल जेल में रहा, आठ साल कोर्ट में केस झेला और आखिरकार पिता का हार्ट अटैक से निधन हो गया।
ऐसा ही दर्द अतुल शुभाष केस में देखने को मिला। दहेज उत्पीड़न के झूठे आरोपों ने न सिर्फ अतुल बल्कि उसके पूरे परिवार की जिंदगी को झकझोर दिया। केस खत्म होने तक समाज की बदनामी और मानसिक बोझ उनके जीवन का हिस्सा बन चुका था।
ये कहानियां बताती हैं कि जब कानून का इस्तेमाल गलत दिशा में होता है, तो निर्दोष पुरुष और उनके परिवार बर्बाद हो जाते हैं। और अफसोस की बात यह है कि झूठ पकड़े जाने के बाद भी समाज उन्हें पूरी तरह निर्दोष मानने को तैयार नहीं होता।
महिलाओं के अधिकारों की रक्षा अनिवार्य है, लेकिन यह भी उतना ही अहम है कि कानून का संतुलन बना रहे। क्योंकि झूठे आरोप न सिर्फ निर्दोष पुरुषों को तबाह करते हैं, बल्कि असली पीड़ित महिलाओं की आवाज़ को भी कमजोर कर देते हैं।
तो सवाल यही है—क्या अब वक्त नहीं आ गया कि हम बेटों को भी बचाने की बात उतनी ही गंभीरता से करें, जितनी बेटियों की करते आए हैं?